Wednesday, January 23, 2008

बी पॉजिटिव, बी एवरयंग


आनंद ही है देव आनंद के चिरयौवन का रहस्य

जैसा कि मैंने पहले बताया था कि इन दिनों गुलाबी नगरी में साहित्य का महाकुंभ-विरासत साहित्य उत्सव-आयोजित किया जा रहा है। देशभर से विभिन्न भाषाओं के लेखक इसमें शिरकत कर रहे हैं। इनके साथ विदेशी विद्वान और नामी-गिरामी प्रकाशक भी साहित्य और साहित्यकारों से जुड़ी विभिन्न संभावनाओं पर विचार-विमशॅ कर रहे हैं। अब आयोजन बड़ा है तो साहित्य जगत की हस्तियों के बावजूद सेलिब्रिटीज को इग्नॉर कैसे किया जा सकता है। सो, सेलिब्रिटीज भी बुलाए जा रहे हैं। इसी कड़ी में बुधवार को मैन ऑफ द ओकेजन बने रहे फिल्मी दुनिया के चिरयुवा देव आनंद साहब।
आयोजकों ने देव आनंद साहब से बातचीत के लिए चेन्नई की युवा लेखिका और नतॅकी तथा दिखने में कमसिन और आकषॅक बाला तिशानी दोषी को अप्वायंट किया हुआ था। करीब एक घंटे तक चले कायॅक्रम में तिशानी ने देव आनंद साहब के जीवन, फिल्मों और उनकी आत्मकथा-रोमांसिंग विद लाइफ- के बारे में बातचीत की। श्रोताओं की जिज्ञासाओं से भरे सवालों के देव साहब ने बखूबी जवाब दिए। पूरी बातचीत के दौरान मैं जितना समझ पाया वह यह था कि पॉजिटिवनेस की ऊरजा इस शख्स में कूट-कूटकर भरी हुई है और वे अपने चाहने वालों को भी एक ही संदेश देते हैं-बी पॉजिटिव ऑलवेज़।
उन्होंने कहा कि 1943 में लाहौर के गवनॅमेंट कॉलेज से इंग्लिश में बीए ऑनसॅ और एमए करने के बाद जब वे बॉम्बे (आज की मुंबई) आए थे, तो उनकी जेब में महज 13 रुपए थे, लेकिन उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा, हिम्मत हारने का तो सवाल ही नहीं था, दो साल तक जमकर संघषॅ किया, फिर कदम आगे बढ़ते गए और देव साहब एक के बाद सफलता के परचम लहराते रहे। उन्होंने कहा कि वे कम्प्यूटर नहीं जानते, इसलिए उन्होंने अपनी आत्मकथा की पांडुलिपि कलम से ही लिखी है। जब वे इसे लिखने बैठते थे तो मन में और कोई ख्याल आता ही नहीं था। एक बार दिल से ठान लो तो कुछ भी मुश्किल नहीं होता। उनका कहना था कि जीवन के किसी दौर में कठिनाई तभी घर बना पाती है, जब हम अपने दिमाग में उसे पैठ बनाने की छूट देते हैं। ऐसा नहीं करने पर कोई भी बाधा हमें मंजिल तक पहुंचने से नहीं रोक सकती। अपनी एचीवमेंट से आदमी को कभी संतुष्ट नहीं होना चाहिए और इससे भी बेहतर करने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए।
अपने शरमीले स्वभाव के बारे में पूछने पर देव आनंद साहब का कहना था कि यह एक अच्छा गुण है औऱ आज भी मेरे सामने कोई कमसिन हसीना आ जाए तो मैं शरमा जाऊंगा।
55 साल बाद अपनी लाहौर यात्रा की चरचा छिड़ने पर देव साहब भावुक हो उठे। उन पलों को याद करते हुए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पाक प्रधानमंत्री नवाजशरीफ औऱ भारत-व पाकिस्तान में सड़क के किनारे खड़ी भीड़ के स्वागत के क्षणों को भी याद किया। उन्होंने बताया कि इस यात्रा के दौरान वे लाहौर गवनॅंमेंट कॉलेज भी गए, जहां के छात्र-छात्राओं ने उन्हें हृदय से प्यार किया। देव आनंद ने फिल्म डायरेक्टर और अपने सबसे अजीज दोस्त गुरुदत्त से जुड़े संस्मरण भी श्रोताओं से शेयर किए। देव आनंद साहब ने नेपाल के तत्कालीन राजा महेंद्र, वीरेंद्र और ज्ञानेंद्र से जुड़े संस्मरण भी सुनाए।
उनका कहना था कि बुरे अनुभवों को न तो दिमाग में रखो और न आत्मा में उतरने दो। थिंकिंग ऑफ प्रेजेंट-हेयर एंड नाऊ-हमेशा अच्छा सोचो रहो और वतॅमान में जिओ।
फिल्मों के बारे में उनकी बेबाक राय थी कि जो फिल्म कोई संदेश न दे सके, वह फिल्म बेकार है औऱ उसे फिल्म कहलाने का हक नहीं है। लेकिन फिल्म में संदेश ही होना चाहिए, उपदेश नहीं। दुनिया में कोई भी किसी का लेक्चर सुनना नहीं चाहता क्योंकि वह समझता है कि मैं ज्यादा जानता हूं। उन्होंने बताया कि वे कुछ ही दिनों में अपनी नई फिल्म-चाजॅशीट-पर काम करेंगे। इसके अलावा वे अंग्रेजी में भी एक फिल्म बनाएंगे, ताकि पश्चिम वाले भी पूरब की क्वालिटी को देखें-परखें। बात-बेबात छींटाकशी करने वालों पर देव आनंद का बस इतना ही कहना था कि वही बोलेंगे जिनके पास वक्त है और काम नहीं है, जो व्यस्त हैं, वे कैसे बोलेंगे।
किताबों से देव साहब को विशेष प्रेम है और वे स्वाध्याय के तगड़े हिमायती हैं। उन्होंने कहा कि जो आपको किताबों ने दिया है, आप उसी को जी रहे हैं। आदमी को अच्छी किताबें जरूर पढ़नी चाहिए औऱ जब भी समय मिले, उसका सदुपयोग पढ़ने में करना चाहिए। एडूकेट योरसेल्फ ऐज यू कैन। उनका कहना था कि अच्छी किताबों पर फिल्में बनना सोने पे सुहागा के समान है। मोशन फिल्म मेकिंग को उन्होंने पिछली शताब्दी की सबसे महत्वपूणॅ खोज बताया। देव साहब ने कहा कि फिल्में क्या नहीं दिखाती हैं-प्रेम कहानी, विरह व्यथा, हृदय की पीड़ा, प्राकृतिक दृश्य औऱ भी वह सब कुछ जो आप देखना चाहते हैं और जिसे देखने के बाद आप तरो-ताजा हो उठते हैं। उनका कहना था कि अच्छी कहानी अच्छी फिल्म की आत्मा होती है। यह पूरी तरह से डायरेक्टर की तपस्या का परिणाम होती है। वह ध्यान रखता है कि अभिनेता, अभिनेत्री, संवाद, नृत्य, स्टोरी, सीन, सिचुएशन और भी कई सारी बातों को किस तरह पेश करना है कि दशॅकों को ढाई घंटे तक मनोरंजन दिया जा सके।
तकरीबन डेढ़ घंटे देव साहब के सान्निध्य में रहने के दौरान मैंने यही पाया कि 26 सितंबर 1923 को पैदा हुए इस इंसान में जिंदादिली का माद्दा कूट-कूटकर भरा हुआ है। चाहे पत्रकारों के सवाल हों या ऑटोग्राफ लेने वालों की भीड़ या फिर कायॅक्रम के दौरान श्रोताओं के सवाल, किसी भी क्षण उनके चेहरे पर तनाव का नामोनिशान नहीं था। इतनी ख्याति मिलने के बाद भी आम आदमी की कद्रदानी इस कदर कि बेबाक कहा कि कि मैं भी आप जैसा ही हूं। आज भी कोई फोन करता है तो लंबे-चौड़े स्टाफ के अमले के बावजूद खुद ही फोन उठाता हूं, कोई मिलना चाहे तो कभी मना नहीं करता, आखिर अपने चाहने वाले को मना करने का अधिकार मुझे किसने दिया है। कोई कुछ पूछना चाहे तो उसकी जिज्ञासा को शांत करने के लिए हर पल तत्पर। पूरे कायॅक्रम के दौरान उनका दाशॅनिक अंदाज देखते ही बनता था। एवरयंग-चिरयुवा होने के सवाल पर देव साहब का कहना था कि बुरी चीजों को मैं तुरत भूल जाता हूं, इसलिए मैं मैं हूं....एंड यू मे बी सो.....बी पॉजिटिव, बी एवरयंग।

अच्छा तो बहुत लगा पर कुछ बातें खली भी

पूरे कायॅक्रम के दौरान हॉल में लगाए दो छोटे परदे पर प्रोजेक्टर के माध्यम से देव आनंद साहब की चुनिंदा फिल्मों के महत्वपूणॅ दृश्य लगातार दिखाए जा रहे थे, बिना ध्वनि के। हां, गीतों और संवाद के अंग्रेजी अनुवाद परदे पर दिखाई दे रहे थे, लेकिन उन पर ध्यान किसका था, लोगों की निगाहें तो मफलर लपेटे देव आनंद साहब पर ही टिकी हुई थीं और कान उनके शब्दों को सुनने को आप्यायित। तिशानी दोषी चूंकि चेन्नई से बिलांग करती हैं, सो उन्होंने हिंदी में सवाल करने में असमथॅता जता दी थी, जबकि अधिकतर श्रोता अपने पसंदीदा अभिनेता देव साहब को हिंदी में सुनना चाहते थे। आखिरकार हिंदी फिल्मों के सहारे ही तो देव साहब इस मुकाम पर पहुंचे हैं। समझदार लोगों ने तो मोबाइल को साइलेंट मोड पर कर रखा था या फिर स्विच ऑफ ही कर दिया था, लेकिन कुछ बददिमागों के मोबाइल की रिंगटोन बजने से ऐसा ही अहसास होता था जैसे सुस्वादु खीर खाते हुए मुंह में कंकड़ आ जाए, बुरा तो आम श्रोताओं और मेजबानों के साथ इस हैंडसम मेहमान को भी लगा ही होगा, लेकिन उनकी आदत है कि बुराई को वे याद नहीं रखते, मैं तो भूल नहीं पाया सो निकल गई यह बात भी।

आमिर भी आएंगे

विरासत फाउंडेशन की ओर से आयोजित इस विरासत साहित्य उत्सव में 25 जनवरी को आमिर खां की हर दिल अजीज फिल्म तारे जमीं पर दिखाई जाएगी और 26 जनवरी को आमिर खां स्वयं इस कायॅक्रम में शिरकत करेंगे। वे इस फिल्म से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर अपनी बात रखेंगे।

Tuesday, January 22, 2008

साहित्यकारों का मेला गुलाबी नगर में

दो संस्थाओं की ओऱ से जयपुर में इन दिनों साहित्य का महाकुंभ आयोजित किया जा रहा है। 20 जनवरी की शाम उज्जैन (मध्यप्रदेश) के लोकगायक प्रहलाद सिंह तिपनिया और उनके साथियों ने कबीर के दोहों और साखियों के गायन से इस कायॅक्रम का शुभारंभ किया, जबकि 21 जनवरी की सुबह डिग्गी पैलेस होटल में इसकी औपचारिक शुरुआत हुई। यहां होने वाले विभिन्न सत्रों में देशभर से आए साहित्यकार विभिन्न विषयों पर अपना पक्ष रख रहे हैं। तकनीकी समृद्धि के इस युग में प्रोजेक्टर के सहारे प्रजेंटेशन की भी मदद ली जा रही है। ...और यह सब देखने-सुनने के लिए साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों की भी भीड़ जुट रही है। 27 जनवरी तक यह महाकुंभ चलेगा।
जयपुर से प्रकाशित हिंदी दैनिक समाचार पत्र डेली न्यूज के 21 जनवरी के अंक में प्रकाशित आलेख में साहित्यकार प्रेमचंद गांधी ने इस आयोजन को अपने नजरिये से देखा। आप भी देखें उनके विचार जस के तस---

भारत का इंडिया में अनुवाद!

वैश्वीकरण के इस दौर में हम देख रहे हैं कि किस तरह आम आदमी की पहुंच वाली चीजों को बडे़ पूंजीपति और कॉरपोरेट घराने हथिया कर भव्य शॉपिंग मॉल और बाजारों में न केवल ले जाते हैं, बल्कि एक खास तरह से चीजों की ब्रांडिंग कर एक बडे़ समुदाय को उनसे वंचित भी कर देते हैं। मसलन किसी मॉल में एक मजदूर घुसने की हिम्मत भी नहीं कर सकता है। चीजों को सर्वसुलभ बनाने के नाम पर पूंजी का यह शर्मनाक खेल जारी है और हम असहाय हैं। दुरभाग्य से मुनाफाखोरी वाले वैश्वीकरण के इस कुचक्र में अब भारतीय संस्कृति के वे सब अंग-उपांग भी आ गए हैं, जिन्हें अब तक बिक्री योग्य नहीं माना जाता था।
सबसे पहले संगीत इस प्रवृत्ति का शिकार हुआ। प्रतिभा खोज के नाम पर चैनलों की संगीत प्रतियोगिताएं किस प्रकार संगीत का कबाड़ा कर चुकी हैं, किसी से छिपा नहीं है। रीमिक्स के नाम पर हमारे लोक, शास्त्रीय और सुगम संगीत से लेकर भक्ति संगीत तक को पाश्चात्य प्रदूषण में इस कदर डुबो दिया गया है कि असली संगीत पता नहीं कहां लुप्त हो गया है। नृत्यों की भी यही हालत है और रंगमंच की क्रांतिकारी जनोन्मुखी विधा `नुक्कड़ नाटक´ अब कंपनियों के सामान बेचने के काम आ रही है। अब साहित्य की बारी है और यकीन मानिए इसकी शुरुआत हो चुकी है।
इन दिनों राजधानी जयपुर में साहित्य का एक बड़ा भव्य प्रायोजित उत्सव चल रहा है। इस उत्सव में भारत को अनुवाद कर अंतिम तौर पर इंडिया बनाने की कॉरपोरेट, ग्लोबल, सरकारी और गैर सरकारी कोशिशें की जा रही हैं। आजादी के साठ साल में यह हाई फाई जश्न मूलत: वैश्वीकरण के दौर में चल रही अनेक प्रवृत्तियों का प्रतीक हैं और एक नए किस्म के औपनिवेशिक भारत बनाने की कुल जमा में साहित्यिक साजिश है। साजिश इसलिए, क्योंकि इसमें, वैश्वीकरण की प्रक्रिया में भारतीय भाषाएं किस तरह बाजार का हिस्सा बन सकती हैं, इस पर जोर दिया गया है अरथात भूमंडलीकरण में भारतीय भाषाएं किस तरह मुनाफाखोरों का भला कर सकती हैं। पिछले दिनों संयोग से इस लेखक से एक ऐसी कंपनी ने अनुवाद के लिए संपर्क किया, जो गांवों में इंटरनेट के माध्यम से ऑनलाइन व्यापार करना चाहती है। कंपनी का आग्रह था कि अनुवाद ग्रामीण भारत के लोगों के अनुरूप होना चाहिए। ट्रांसलेटिंग भारत इसी तरह भारत को अनुवाद के माध्यम से एक बड़ा बहुभाषी बाजार बनाने की प्रक्रिया का पहला चरण है।
इस कथित साहित्य उत्सव का केन्द्रीय विषय है - भाषा भूमंडलीकरण और पढे़ जाने का अधिकार। भाषा और भूमंडलीकरण का अत्यंत गहरा संबंध है। स्वतंत्रता संघर्ष के दौर में हम जानते हैं कि अंग्रेजों ने हम पर राज करने के लिए भाषा को ही एक माध्यम बनाया था। उन्होंने हमारी प्राचीन और वर्तमान तमाम भाषाओं का गहरा अध्ययन किया था। हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं के अध्ययन के आधार पर ही उन्होंने हमारे ऊपर शासन करने के अनेक तरीके खोजे थे। भूमंडलीकरण के इस दौर में या कहें कि नव औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के इस दौर में भारतीय भाषाओं का विपुल साहित्य अंग्रेजी के माध्यम से दुनिया में जाना चाहिए और इसी तरह अंग्रेजों व अन्य भाषाओं से भारतीय भाषाओं में आना चाहिए। दुरभाग्य से इस उत्सवधर्मी प्रायोजित साहित्यिक उपक्रम में जो प्रकाशक भागीदार हैं, वे मुख्यत: अंग्रेजी या हिन्दी के हैं। इसलिए उनसे यह अपेक्षा तो नहीं की जा सकती कि वे विश्व साहित्य को भारतीय भाषाओं में मसलन राजस्थानी में भी छापने के लिए उत्सुक होंगे। मुनाफाखोर अंग्रेजी प्रकाशक भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में चाहता है कि वह दुनिया का उत्कृष्ट साहित्य अनुवाद के माध्यम से छाप कर और बड़ा बनता जाए। इस अनूदित साहित्य से भारतीय भाषाओं का कोई भला नहीं होने वाला, क्योंकि अनुवाद पर अनुवादक का कॉपीराइट नहीं होता, वह एकमुश्त भुगतान के माध्यम से प्रकाशक खरीद लेता है और पीढ़ियों तक कमाता रहता है। अनुवादक और मूल भाषा बहुत पीछे छूट जाती है।
इस उत्सव के निमंत्रण पत्र के तौर पर महंगे आर्ट पेपर पर बहुरंगी छपाई वाली पचास से ज्यादा पृष्ठों की मोटी बुकलेट में इस बात पर जोर दिया गया है कि भूमंडलीकरण के दौर में भारतीय साहित्य को अनुवाद के माध्यम से प्रतिष्ठित किए जाने की जरूरत है। भारतीय अर्थव्यवस्था के बढ़ते प्रभाव और महत्व को भी इस संदर्भ में रेखांकित किया गया है। इस तरह भारतीय अथॅव्यवस्था, भारतीय साहित्य और भारतीय भाषाएं भूमंडलीकरण की बहुराष्ट्रीय मुनाफाखोर संस्कृति के लिए एक अनिवार्य उपकरण के रूप में इस्तेमाल की जा रही है। इस तरह इस पूरे आयोजन का मंतव्य स्पष्ट हो जाता है।
हम अनुवाद के विरोधी नहीं हैं, लेकिन हम जानते हैं कि भारत एक बहुभाषी संस्कृतियों का देश है। हम चाहते हैं कि उत्तर पूर्व का साहित्य हिन्दी और अंग्रेजी में ही नहीं, राजस्थानी, गुजराती, उडि़या, मराठी यानि तमाम भारतीय भाषाओं में भी आए। इसी तरह भारतीय भाषाओं के बीच अनुवाद का यह काम होना चाहिए, लेकिन पेंग्विन, हार्पर कॉलिन्स जैसे प्रकाशकों की इसमें क्यों रुचि होगी?
रुचि तो दरअसल ऐसे किसी काम में उन कॉरपोरेट किस्म के प्रायोजकों की भी नहीं होगी, जो इस पूरे आयोजन में भागीदार हैं। अब आप ही बताइए कि रीयल एस्टेट, टे्रवल एजेंट, टेलीफोन, माबॅल, सीमेंट और होटल इंडस्ट्री का साहित्य से क्या लेना देना है? ज्यादातर के लिए साहित्य इंटीरियर डिजाइन का एक हिस्सा है। क्योंकि एक अलमारी में किताबें रखी होने से घर, दफ्तर सुंदर लगता है और वहां रहकर काम करने वालों को एक बौद्धिक आभा प्रदान करता है। यह सही है कि इतने बडे़ और भव्य आयोजन के लिए संसाधन जुटाने के लिए बहुत से प्रायोजकों की मदद ली गई है, लेकिन आयोजन के कुप्रबंध का इस बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि इस लेखक के पास दो साल पुराने पते पर एक साथ, एक ही कोरियर कंपनी द्वारा कुल सात निमंत्रण भेजे गए। इसी तरह अन्य लेखक मित्रों के पास तीन से लेकर आठ तक निमंत्रण पहुंचे। यह तो सरासर धन का अपव्यय है और साहित्य के नाम पर निश्चित रूप से कागज की बरबादी है।
दो साल से जयपुर विरासत फाउंडेशन भी इसी प्रकार का एक साहित्य उत्सव आयोजित करता आ रहा है। इस बार वह उत्सव इस आयोजन में अनुवाद की पूंछ बन गया है। कहने का आशय यह कि कुल आठ दिन के आयोजन में तीन दिन भूमंडलीकण में अनुवाद के नाम और पांच दिन विरासत का तामझाम। अब इस तामझाम में भारत कहां है? यह देखने की कोशिश की तो पता चला कि लगभग नब्बे लेखक-पत्रकारों में से साठ तो सिर्फ अंग्रेजी के हैं और बाकी तमाम भारतीय भाषाओं के। आठ दिन के उत्सव में कुल आठ हिन्दी के हैं और तीन राजस्थानी के। यह है भारत का अनुवाद और साहित्य की विरासत।
चूंकि आयोजन राजस्थान की राजधानी में हो रहा है, इसलिए निवेदन करना जरूरी है कि देश के सबसे बडे़ प्रान्त से मात्र पांच लेखकों को चुना गया है। नंद भारद्वाज, चन्द्र प्रकाश देवल, मालचंद तिवाड़ी और गिरिराज किराडू के अलावा इतिहासकार रीमा हूजा हैं। निश्चय ही ये हमारे महत्वपूर्ण लेखक हैं, लेकिन हिन्दी के और भी लेखक इस भीड़ भाड़ में शामिल कर लिए जाते, तो कम से कम हिन्दी का मान तो बढ़ता, लेकिन जब साहित्य उत्सव बन जाता है, तो ऐसी भूलें हर साल ही दोहराई जाती हैं। दुरभाग्य तो यह है कि मरुस्थल की ये आवाजें राजनीति के पिछवाडे़ में डाल दी गई हैं। मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहा था, लेकिन भूमंडलीकरण के दौर में राजनीति और कॉरपोरेट पूंजी आगे चलती है तथा साहित्य संस्कृति को कुछ लोग मिलकर इनके पीछे जोतने में लगे हैं। यह साहित्य का दुरभाग्य है और हम इसके गवाह हैं।

Thursday, January 17, 2008

रांगेय राघव को सादर श्रद्धांजलि


गुरुवार को प्रसिद्ध साहित्यकार रांगेय राघव की जयंती थी। विरले ही ऐसे सपूत हुए हैं जिन्होंने विधाता की ओर से कम उम्र मिलने के बावजूद इस विश्व को इतना कुछ अवदान दे दिया कि आज भी अच्छे-अच्छे लिक्खार दांतों तले अंगुलियां दबाने को विवश हो जाते हैं। जी हां, यह महान विभूति थे पंडित टी.एन. वीर रंगाचार्य के परिवार में 17 जनवरी, 1923 को जन्मे अजस्र प्रतिभा के धनी रांगेय राघव। उपन्यास, कहानी, कविता, आलोचना, नाटक, रिपोर्ताज, इतिहास-संस्कृति तथा समाजशास्त्र, मानवशास्त्र और अनुवाद, चित्रकारी, ...यूं कहें कि सभी विधाओं पर उनकी लेखनी बेबाक चलती रही औऱ उससे जो निःसृत हुआ, उससे साहित्यप्रेमी आज भी आनंदित होते हैं, प्रेरणा लेते हैं। 12 सितम्बर 1962 को उनका शरीर पंततत्व में विलीन हो गया, लेकिन उनका यश आज भी विद्यमान है। ३९ वषॅ की अल्पायु में डेढ़ सौ से अधिक कृतियां भेंट कर निस्संदेह उन्होंने सृजन जगत को आश्चर्यचकित कर दिया। बंगाल के अकाल की विभीषिका पर रिपोर्ताज `तूफानों के बीच´ में उन्होंने जो कीर्तिमान स्थापित किया, वह आज भी अविस्मरणीय है।

उनकी कुछ प्रतिनिधि कृतियां ये हैं---
कब तक पुकारूँ, धरती मेरा घर, पथ का पाप, प्रोफेसर, रत्ना की बात, लखिमा की आँखें, लोई का ताना, मेरी भव बाधा हरो, भारती का सपूत, देवकी का बेटा, यशोधरा जीत गई, घरौंदा।

उनकी प्रत्येक कृति बेजोड़ है, पर गदल कहानी सबमें विशिष्ट स्थान रखती है। इसमें भारतीय नारी के स्वाभिमान व जुझारू व्यक्तित्व का बड़ा ही सजीव चित्रण किया गया है। आप भी लीजिए इस कथा का आनंद।

Sunday, January 13, 2008

प्रज्ञाचक्षुओं ने बहाई काव्य सरिता


हर शहर की अपनी फितरत होती है, गुलाबी नगर की भी है। मकर संक्रांति यूं तो पूरे देश में मनाई जाती है, लेकिन जयपुर में इन दिनों पतंगबाजी का सुरूर सा छाया रहता है। पूरा आसमान पतंगों से अट जाता है। मकर संक्रांति के दिन घरों में रहता है सन्नाटा और छतें हो जाती हैं आबाद। डीजे की धुनों के बीच दिनभर बच्चे-युवा और यहां तक कि बुजुगॅ भी पेंच लड़ाने में व्यस्त रहते हैं। नाश्ता-भोजन भी छतों पर ही पहुंचा दिया जाता है, बीच-बीच में चाय-कॉफी के दौर भी चलते रहते हैं।
हां, तो मैं तो कुछ और कहना चाहता था लेकिन अपनी आदत से लाचार लीक से भटक गया। तो मैं बता रहा था कि मकर संक्रांति के उल्लास के बीच ही जयपुर के प्रज्ञाचक्षु कवि नरेंद्र कुमार शरमा-कवि-ने १२ जनवरी शनिवार की शाम जवाहर कला केंद्र के रंगायन सभागार में अंतरराष्ट्रीय दृष्टिहीन एवं विकलांग कल्याण संस्थान जयपुर के बैनर तले अखिल भारतीय हास्य कवि सम्मेलन का आयोजन किया। इसमें काव्यपाठ करने वाले सभी कवि प्रज्ञाचक्षु ही थे। इन्हें सुनने के बाद यह ऐलान तो किया ही जा सकता है कि इन्हें नेत्रहीन तो नहीं ही कहना चाहिए, दृष्टिहीन भी नहीं कहा जाना चाहिए। जीवन के प्रति इनकी दृष्टि जिसे हम विजन भी कहते हैं, हम आंख वालों से बढ़कर ही हैं।
तो आप भी लीजिए कुछ कविताओं का आनंद -

सूरज लहू-लुहान समंदर में गिर पड़ा,
दिन का गुरूर खत्म हुआ शाम हो गई।
के साथ उत्तर प्रदेश के सीतापुर से आए मनोज वाजपेयी ने अपने तेवर स्पष्ट कर दिए थे।
प्रस्तुत है उनकी यह कविता---

तन्हाइयों को दूर हटाने की बात कर,
मिलने की बात कर तू मिलाने की बात कर।
वादे हजार कसमें बेशुमार यूं न खा,
दो-चार कदम साथ निभाने की बात कर।
जन्नत के ख्वाब छोड़ दे परियों की कहानी,
आ बैठ मेरे पास ठिकाने की बात कर।
दुनिया बना रही है चांद-तारों का महल,
तू सिफॅ इस धरा को सजाने की बात कर।
गुजरी तमाम उम्र ये पूजा-नमाज में,
अब दो दिलों के फकॅ मिटाने की बात कर।
दुनिया सुलग रही है नफरतों की आग में,
तू प्यार की सौगात लुटाने की बात कर।
जख्मी है कदम ठोकरों की सख्त मार से,
इस हाल में न हाथ छुड़ाने की बात कर।
जिनके दिलों में प्यार है बातों में रंज है,
उनको मनोज मन से मनाने की बात कर।

मनोज वाजपेयी ने कुछ यूं स्वर बदले-----

दिल में अजीब ददॅ जलाकर चला गया,
तूफानी जलजला कोई आकर चला गया।
खंजर थमाए पेट की रोटी को छीनकर,
भूखों पर सेमिनार कराकर चला गया।
मैंने दीये जलाये उसकी आवभगत में,
वो मेरे घर को आग लगाकर चला गया।
ये भी महज मनोज एक इत्तेफाक है
कि मेरी गजल इनाम वो पाकर चला गया।

इन्होंने हर छोटे-बड़े मसलों पर --जाने दो---की हमारी सहज प्रवृत्ति पर कुछ यूं चुटकी ली---

जब जुमॅ की ललकार पर इंसाफ बिल्कुल मौन है,
चुप तुम नहीं, चुप हम नहीं तो तीसरा फिर कौन है।

समाज में तथाकथित शक्ति-वैभव संपन्न तबके को मनोज ने यूं आईना दिखाया--
तूफान किसी को क्या देगा, मैं मंद पवन सारी दुनिया के जीवन का आधार बनी।

-मुझे अनुग्रह नहीं चाहिए मुझे नहीं अभिलाषा वर की-
के साथ कोटा से आए राजेश गौतम ने कुछ यूं फरमाया---
जिसमें दुख ही दुख होता है वो मुस्काना बाकी है,
सब कुछ खो देने की हद तक तुझको पाना बाकी है।
धान पड़ी है चिड़िया भूखी, फिर भी इक तिनके की चाहत,
मां होने की तकलीफों का बोझ उठाना बाकी है।
रहिमन वाले धागे वाली गांठ ने हमने टूटने दी,
पर कबिरा के चादर वाली ताना-बाना बाकी है।
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लाख इंसान चाहे तो क्या है, वक्त पर जोर चलता नहीं है,
साथ देती है दुनिया भी जब तक, कोई मतलब निकलता नहीं है।
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दो घड़ी और बतियाने दो, ज्योति अपनी फैलाने दो
सूरज थोड़ा और ठहर जा, सांझ अभी न ढलने दो
के संदेश के साथ बाड़मेर से आए विष्णु खंडेलवाल ने माता-पिता के प्रति हमारे कतॅव्य का अहसास कराया---
जग में यदि कुछ भूल भी जाओ तो भूल नहीं है पाप,
पर मां-बाप को भूल न जाना, यह भूल नहीं है माफ।
पिता देव माता को देवी जग में जिसने जाना,
तन-मन से सेवा कर उनकी वह अमर हुआ जग जाना।
दौलत से क्या नहीं मिलता है नहीं मिलता सब संसार,
पर मां-बाप नहीं मिलते हैं न मिलता वैसा प्यार।
जीते जी नित इनकी सेवा कर लें हम और आप,
पर मां-बाप को भूल न जाना यह भूल नहीं है माफ।

प्रतापगढ़ के राजेश जोशी ने अपनी भावनाएं हमसे यूं शेयर की---

हर गम से हो आगाह जरूरी तो नहीं है,
हर राही हो गुमराह जरूरी तो नहीं है।
संतोष कुमार ने अपनी चाहत यूं बयां की---
हमको पूरी धरा ना कोई गगन चाहिए,
अप्सरा न कोई गुलबदन चाहिए।
इसके बाद उन्होंने---हे राम अयोध्या मत आना---के माध्यम से वतॅमान परिवेश में व्याप्त विसंगतियों पर तीखा कटाक्ष किया।
जयपुर के प्रिंस बड़जात्या ने-
नन्हीं किरण की पुकार, मुझ नन्हीं किरण को आने दो,
ज्योति अपनी तुम फैलाने दो
से अपनी उपस्थिति दरशाई।
इनके अलावा तालेश्वर मधुकर, खेमकरण कश्यप, रामखिलाड़ी स्वदेशी, मनमोहन तिवाड़ी, उदयपाल सिंह, शुभांगी पांडे, बाबूलाल सरोज, महेश, रामावतार शरमा, कुसुमलता ने भी अपनी कविताओं से काव्यरसिक श्रोताओं को झुमा दिया। एक-एक मुक्तक पर तालियों से श्रोताओं से खचाखच भरा सभागार गूंज रहा था। राजस्थान के समाज कल्याण मंत्री मदन दिलावर पूरे समय मंच पर बैठे रहे और शिद्दत के साथ न केवल कविताएं सुनाईं बल्कि उनकी हौसला आफजाई भी की। जयपुर के सांसद गिरधारीलाल भागॅव के साथ नगर के गणमान्य नागरिकों की उपस्थिति से कायॅक्रम अपने शबाब पर था। इस सफल कवि सम्मेलन का बहुत ही अच्छा संचालन जयपुर की कवयित्री और शायर शोभा चंदर ने किया। मैं भरसक प्रयास करूंगा कि इस कवि सम्मेलन की और कुछ श्रेष्ठ कविताएं आपके सामने प्रस्तुत करूं क्योंकि ऐसे प्रतिभावान कवि कम ही मिलते हैं और ऐसे आयोजन तो मुश्किल से ही हो पाते हैं।

Tuesday, January 8, 2008

नये वषॅ के स्वागत में गीत गुनगुनाइए

नवागत नववषॅ 2008 का एक सप्ताह बीत चुका है, नववषॅ की बधाई के एसएमएस और फोन आने का सिलसिला तो थम गया है, पर गाहे-बेगाहे ग्रीटिंग काडॅ और इक्के-दुक्के पत्रों का आना अभी भी जारी है। इस माह आ रही पत्रिकाएं भी नववषॅ के स्वागत में कविता पाठ कर रही हैं, गीत गुनगुना रही हैं। ऐसा लगता है कि हमारे चहुंओर विराज रही प्रकृति भी नववषॅ के इस उत्सव में हमारे साथ है। तो आइए, हम भी नववषॅ के स्वागत में लिखा गया दिनेश शुक्ल का यह गीत गुनगुनाएं -

स्वागत में नववषॅ के
मेहंदी रची हथेलियां, लिए रंगोली थाल,
नये वषॅ की सुबह यह, दीप रही है बाल.

केले के पत्ते हरे, चावल, शहद, गुलाब,
स्वागत में नववषॅ के हवा लिखे शुभ-लाभ.

गाती गीत सुहागनें, खनके बाजू-बंद,
घर-आंगन में गूंजते, नये वषॅ के छंद.

मौसम चितवे धूप को, देखे रूप, अनूप,
रह-रह कर हंसती सुघड़, नये वषॅ की धूप.

झिलमिल-झिलमिल रोशनी, मोती वाली सीप,
तुलसी के बिरवे तले, जले वषॅ के दीप.

बैठ नदी के घाट पर, धूप धो रही पांव,
भौंचक होकर देखती, नये वषॅ की छांव.

नये वषॅ, बोली हवा, झुक, इमली के कान,
पगडंडी पर कर गया, जादू रात सिवान.

महानगर, कस्बे, शहर, जंगल, गांव, सिवान,
सबके होंठों पर रचे, नया वषॅ मुस्कान.

कुछ कोशिश, कुछ हौंसले, कुछ उम्मीदें संग,
नये वषॅ के द्वार पर, बिखरे कितने रंग.

इच्छाएं, शुभ-लाभ यह, सुख-दुख, चिंता-हषॅ,
सुख सपनों के जोड़ता, गणित खड़ा नव वषॅ।

( साभारः नवनीत, जनवरी 2008)

Sunday, January 6, 2008

इसलिए-खेत-ने मार लिया मैदान

इसलिए-खेत-ने मार लिया मैदान
किन कारणों से किसान को धरतीपुत्र कहा जाता है। माटी से मोह किसे कहते हैं। धरती छिनने पर नंदीग्राम में संग्राम के बीज कहां छिपे होते हैं, सब कुछ छूट जाने के बाद भी आदमी अपना ठीया-ठौर क्यों नहीं छोड़ना चाहता है, सवॅसंपन्न बेटे-बहू के साथ रहने की बजाय एक वृद्ध अपने अंतिम दिन अपने गांव में सारी परेशानियों को अकेले भोगना ही क्यों श्रेयस्कर समझता है। गोस्वामी तुलसीदास की चौपाई ०जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई० को चरिताथॅ करता हुआ संपन्न आदमी और पाने की चाहत में किस तरह विपन्नों से भी विपन्न कैसे बन जाता है, ऐसे बहुत सारे अनुत्तरित प्रश्नों के समाधान खोजने की भरपूर कोशिश की गई है, रत्न कुमार सांभरिया की इस कहानी -खेत-में। छोटे-छोटे वाक्यों में कहानी इस कुशलता से बुनी गई है कि कहना ही क्या। मैं अबोध तो भला कैसे सुना सकता हूं इस पुरस्कृत कहानी की रामकहानी, आप प्रबुद्ध हैं, खुद ही पढ़कर देख लीजिए।

खेत

बूढ़ा के लिए खेत था। सोलह आना सच यह था कि वह दो सौ वगॅ गज का प्लॉट था, उसके पचीस-पचीस फीट के आठ क्यार बने हुए थे। क्यार-क्यार न्यारी फसल उगी थी। चना, जौ, गेहूं, गाजर, पालक, धनिया, मेथी। आठवें क्यार में बूढ़ा की झोपड़ी थी। प्लॉट के तीनों ओर बिल्डिंगें बनी हुई थीं। सामने तीस फीट की सड़क थी। हवा पानी दोनों इसी राह आते थे, बूढ़ा के लिए। गेट के नाम पर बबूल की छाजन का फाटक था। आड़, चाहे बाड़ हो।
प्लॉट के लिए आए दिन खरीददार आते। बढ़-चढ़कर मोल-भाव करते। बूढ़ा से जिदयाते-बाबा, अकेले जीव हो। बावली बात छोड़ो। दाम बोलो। दाम पकड़ो। बूढ़ा खुद्दार। बूढ़ा जज्बाती। बूढ़ा खानदानी। बेलाग कहता-शरीर का सौदा साई, होवे छै कांई। बूढ़ा ७४ वषॅ की अपनी अवस्था को गिनता गामता तक न था। वह अपने क्यारों में निराई करता। खोदी करता। पानी बलाता। खुद अपनी रोटी-पानी करता। रात हुई। झोपड़ी में बिछी खाट पर लेट जाता। रात गहराने लगती। बूढ़ा अतीत की स्मृतियों में गुम होने लगता। अतीत और आज, दो ध्रुवों की तरह थे। आकाश, चांद-सितारों को नापता बूढ़ा अपनी झोल खाट पर गोल हुआ सो जाता, आसमान में परवाज भरने वाला पंछी अपने घोंसले में पंख समेट कर बैठता है।
एक दिन बूढ़ा उठा। शरीर अकड़ा था। बूढ़ा को बुखार जकड़ा था। लाइन के दूसरी ओर बूढ़ा की दादालाई थी। वहां खबर कराई गई। बूढ़ा के कुटुंब के लोग। बूढ़ा की सेवा-सुश्रूषा की। दवा-दारू हुई। बूढ़ा को सीख दी गई-
०बाबा, बीमारी बुढ़ापा की बैरन होती है। सांस रोकती है। सांस ही शरीर की गाड़ी है। सांस थमी, देह माटी हुई। तुम्हारे बेटे को फोन कर देते हैं, साथ चले जाना उसके।०
बूढ़ा कोहनी तक हाथ जोड़, मुआफी सी मांगते ना कह देता। बूढ़ा और बालक की चाम नाजुक होवे छै। हवा, पानी जल्दी लाग जावै। कभी साज, कभी नासाज। किसट तो माकी काया भोगेली।
एक हवा उड़ी। हवा गली-गली दस्तक देती गई कि बूढ़ा का जी उठ खड़ा हुआ है। वह प्लॉट बेचकर अपने बेटे के पास जाएगा। देखें, किसके जोग हैं। हवा में रंगत आ गई। बीमार बूढ़ा के पास आने वालों का तांता लगा रहता। मरणासन्न कीट को कीरियां घेर लेती हैं। जिनका कोसों खोज नहीं था, वे तन के लत्ते से बूढ़ा के करीबी हो गए थे। खैरियत जानना जरिया रहा, साध बूढ़ा का खेत थी। बगुला इधर-उधर गदॅन घुमाए, टकटकी मछली पर होती है। दवा का असर होता गया। बूढ़ा बीमारी से उबरता गया। बूढ़ा ने बड़ों का सुना-गुणा। खाट पर अच्छा भला बीमार हो जाता है। डोलते-फिरते से पांव मोकले होते हैं। देह खुलती है।
उसने चादर की बुक्कल मारी। साफा बांधा। जूतियां पहनीं। बूढ़ा ने लाठी नहीं पकड़ी थी, अभी। लाठी निकाल ली थी, झोंपड़ी से। शरीर कांपता-हांफता है। सरसरी है। माथा घूमता है। लाठी सहारा देगी। बूढ़ा ने फाटक भिड़ाया और सड़क पर उतर गया था। भारी-भरकम सा एक हाथ बूढ़ा के कंधे पर गिरा। बूढ़ा चौंका। बूढ़ा ठिठका। छोहभरा बूढ़ा पीछे मुड़ा। चौथी गलती में रहने वाला पंजाबी था। उसकी वय पचपन से टपी न होगी। सिर, भौंहें और हाथ-पैर पर सफेदी उतर आई थी। बूढ़ा ने मूंछों ढंके होंठ बुदबुदाए कि वह खुद बोल पड़ा था-०बुड्ढे बाबा पवनदास पंजाबी हां असी। चौथी गली विच रहंदे हां, उत्थो ही दुकान हन, साढ़ी।०
चप्पा-चप्पा बूढ़ा के पांव चस्पा था। किशोर केरसिंह, आज जग की जुबान०बूढा०है। वह और उसके जोड़ीदार कबड्डी खेला करते थे, वहां।
०बोल कांई छै? ० बूढ़ा के कंठ तुरशी थी।
०प्लॉट दा कि मांगदे हां, तुसी?०
०घर का गूदड़ा।०
०हूं, दसो-दसो।०
बीमारी में क्रोध, बारूद में तीली। बूढ़ा ने संयम बरता-०कह दी ना ना बेचूं।० बूढ़ा की ना में दुत्कार भी थी, फटकार भी थी। बूढ़ा का जी आगे तक टहल कर लौटने का था। कॉलोनी में कहां क्या नया हुआ है, देखने की उसकी जिज्ञासा थी। वह अपनी खाट पर आ लेटा था। मुट्ठी में दबी रेत का कण-कण निकालता है। खूड़-खूड़ हाथ से निकल जाने की व्यथा बूढ़े को मथने लगी। बूढ़ा की खतौनी आठ खेत थे। सौ बीघा जमीन थी, पक्की। तीन बरस अकाल पड़ा। बीस बीघा जमीन बेच दी, चारे के मोल। खुद खाया। पशुओं को खिलाया। बेटे की कोचिंग। बेटे का लगातार बाहर जाकर पढ़ना, बेटे का यादगार ब्याह। पत्नी का झेरे में गिरकर मरना। पुलिस का बाज बन जाना। पत्नी का मौसर। अड़ी हुई, जमीन निकाल दी, मानो जमीन नहीं, गुल्लक के पैसे हों।
अंतरवेदना लहरों सी हिलोरों सी उठती। बूढ़ा खुद को सांत्वना देता। अपने पूवॅजों को मानों ढांढ़स बंधाता-०सब कुछ बेचकर भी कुछ गंवाया नहीं है मैंने। अपने पास जो टुकड़ा है, उसका रोकड़ा, उस सगली जमीन से घना है, आज०। बूढ़ा आकाश में खिले तारों की तरह खिलखिलाता, उसके खेतों पर शहर बस रहा है।
एक घटना ने उसे उद्वेलित किया। एक खेत बंजर पड़ा था। झांड़-झंखाड़ उगा था। कीकर, बबूल खड़ी थी। लोमड़, सियार, भेड़िया जैसे डरावने जानवर खोंखियाया हुंकियाया करते थे। आज एक बड़ा स्कूल खड़ा हो गया है वहां। सेठ, साहकार, रईसों, शहजादों के बालक मोटर में बैठकर पढ़ने आते हैं, दूर-दूर से। स्कूल टकटकाता बूढ़ा अवचेतन में चला गया था। वह भीतर जाकर उस खोह को देखना चाहता था, जहां भेड़िए के मुंह पर लाठी मारकर उसने लहूलुहान बकरी को छुड़ाया था। जुनूनी बूढ़ा आगे बढ़ा। गेट पर बैठी चपड़ासन ने डंडा ठठकार दिया था-०ताऊ किस जागा? छोरा-छोरी पढ़ै से के थारा इस स्कूल में?०
बूढ़ा का अंतस तनतनाया-०कह दूं। मुंह को लगाम दे बाई। किसका खेत है, बैठी चाकरी करती है तू०। बूढ़ा का मन कभी उन खेतों में, तो कभी उन पर उगे कंकरीट के जंगल में विचरण कर रहा था कि प्लास्टिक के पाइप से पानी कूदने लगा था, गल्ल। फुरॅ फुरॅ। गल्ल गल्ल। हवा और पानी भरा पाइप कुचले सांप की तरह छटपटा रहा था।
तबियत बहाल होते ही बाल का मन खेल खिलौनों में लग जाता है, बूढ़ा अपने क्यार में जा खड़ा हुआ था। कुरते की बांह संगवाए था, कुहनी तक। धोती के खूंट अडूंसे थे, घुटनों तक। रूमाल उतारकर एक ओर रखा था। हाथ में खुरपी थी। नंगे पैर थे, सिंचते खेत जूती चप्पलें नहीं चलतीं।
०बाबा। बूढ़ा बाबा। बाबा साहब। ओ बाबा। ०
बूढ़ा के उम्र पके कान ऊंचा सुनते थे। बीमारी के बाद और क्षीण हो गए थे। बूढ़ा के भोथरा कानों से शब्द टकराए। उसने खुरपी वाले हाथ को जमीन में रोप सा दिया था, जैसे। दूसरा हाथ गोड़े पर रखा और उठ खड़ा हुआ। बूढ़ा बैल थान से उठा हो, थूथन जमीन पर टिका कर देखा। चश्मे के भीतर आंखें छपछपाईं। सधाईं। बूढ़ा को गुस्सा आया। उसकी खाट पर आ बैठा कौन बेशऊर है। उसने चश्मे की दोनों डंडी कानों पर ठीक की। निगाह बांधी। खाट पर बैठे शख्स को पहचान लिया था। वही वकील जी, जो बूढ़ा की बीमारी के टेम आए थे, बूढ़ा की खाट पर बैठकर उसका बुखार देखा था। आत्मीयता से बतियाते थे। बाप का नाम जाना था। खेत की नाप पूछी थी। वकील ने बूढ़ा की ओर देखा। उसके गीले पैर जमीन छपते आए थे। खुरपी वाले हाथ से रेत मिट्टी टपक रहे ते। उन्होंने बूढ़ा को नमस्कार कर पूछा-०बाबा अब तबियत कैसी है, आपकी? ० हिदायत दी-०पानी में मत रहो, आराम करो।०
झबरीली मूंछों के भीतर बूढ़ा मुसकराया-०जीते जी आराम कांई वकील जी०। बूढ़ा के नेत्रों में विभोर उतर आया था। बूढ़ा यानी केरसिंह मोटियार था। भौंरे के रंग जैसी स्याह मूंछों के ताव चढ़े छोर बैलों के सींगों की तरह आसमान देखा करते, उमरदराज भैंसे के माथे पर लुढ़के सींगों की भांति उसकी धोली मूंछें ठोढ़ी पर पड़ी थी। बूढ़ा का गीली मिट्टी और पानी भरा हाथ मूंछों पर आ बैठी मक्खी को उड़ाने लगा था। गंदलाई एक बूंद मूंछों के बालों से रिपसती छोर पर थिर गई थी। वकील हंसे।
उन्होंने बूढ़ा को विश्वास में लिया-०बाबा साहब, साठ फीट के रोड पर जो ट्रांसफामॅर है ना, उसके दो प्लॉट आगे इमली का पेड़ है एक, उसी से दूसरा प्लॉट है, मेरा। ०
०दूसरो या तीसरो?०
०तीसरा नहीं दूसरा बाबा। ०
०जको आगे अबार बनो छौ, अब बुच लाग्योड़ी छै?०
०तांत्रिक हो बाबा।०
बूढ़ा बोला-०वकील जी वैंडे हमने अपनो बैल दबायो छो, बीस बोरी नमक मेल। ०
बूढ़ा के कंपकंपाते होंठों के साथ मूंछें भी कांप गई थीं। वकील का, जी सा निकल गया था। मुंह खुला का खुला रह गया था, बया-सा। अंडरग्राउंड खोदते पशु कंकाल की बात अंदर रख ली थी। कहता, वह पेड़ उसने अपने हाथों लगाया था, ऐन आजादी के दिन। वहां झाड़ियां थीं। बोर थे। बुरट थे। निकलो, कपड़ों पर चिपक जाते थे, बुरी तरह। खेत की डोल-डोल निकलते थे।
बुढ़ा को गुमदाया देख, वकील ने यकीन दिलाया-०बाबा साहब, वह आदमी आला काला नहीं है। मैं बीच में हूं ही। चिंता मत करो।०
अधॅ बधिर बूढ़ा हुं, हां कर अपने क्यारों की ओर बढ़ गया था, नल चला जाएगा। वकील का स्कूटर फाटक के बाहर बस्ता बांधे खड़ा था। एक गाय मुंह उठाती फाइलों की ओर बढ़ गई थी। उधर दौड़ते वकील ने बूढ़ा की ओर हाथ हिलाया। जवाब में बूढ़ा ने भी हाथ हिला दिया था। वकील गदगद हुए-०बाखड़ भैंस देर से पोसाती है, बूढ़ी अकल विलंब से बावड़ी।०बूढ़ा बीमार हुआ, उस दिन से साग-सब्जी बेचने नहीं गया था। पालक, मेथी, चना का साग बड़ा हो रहा था, क्यारों में। बूढ़ा ने तोड़ चूंट सागपात का मिला, कर लिया था, पोटली भर। बूढ़ा सौ फीट सड़क के जिस नुक्कड़ पर सब्जी लेकर बैठा करता, वह बरकत की ठौर थी, जैसे। यहां सब्जी की पोटली उतारते ही उसके जेहन में पानी भरे बादलों की भांति कुछ घुमड़ता। कभी दो कुओं की सब्जी, भेली होती थी, यहां। बैलगाड़ी सब्जी मंडी नहीं जाती थी। चिल्ल-पों, भीड़-भड़ाका, बैल चमकते चौंकते थे। तांगा ले जाया करते थे।
एक जना बूढ़ा के सामने आ खड़ा हुआ था। बूढ़ा ने पोटली खोलकर साग में हाथ मारा-०आओ बाबू साहब ताजा साग छै, अपना खेत को। चार रुपए पाव देऊंलो।० लंबे-तगड़े बदने पर ढीला-ढंकल सा कुरता-पाजामा पहने पैंतीस साल के उस आदमी की पुतलियों में कुछ और ही दिपदिपा रहा था। हल्की सी खंखारी ली-०बूढ़ा बाबा, अपना प्लॉट का भाव बताओ थै, तो०। बोनी बट्टा हुआ नहीं कि....। बूढ़ा धधका। बूढ़ा चमका। बूढ़ा ने होंठ से जीभ काटी-०साग की बात कर बाबू, पिलाट विलाट ना बेचूं, मैं।०
बूढ़ा एक ग्राहक को साग तौल रहा था। उचंती सा एक दलाल आया। बैठा। उसने आव देखा न ताव, बैग की चेन खींची-सौ-सौ के नोटों की तीन गड्डियां बूढ़ा के साग पर बिछा दी थीं। पूरे तीस हजार थे। उसकी सूझ थी, प्लॉट या मकान बेचने वाले के सामने रकम बिछा दो। नोटों की गरमी से जमे घी की तरह पिघल जाएगा वह। गरूर से कहने लगा-०बूढ़ा बाबा, पाव-पाव कांई बेचो। पिलाट का दाम बोलो। रोकड़ा लो।० बूढ़ा की नस-नस में ज्वाला उतरी थी। रोआं-रोआं उठ खड़ा हुआ था। मूंछों के बाल हुंचकने लगे थे। बूढ़ा को लगा जैसे किसी ने उसके भीतरले (हृदय) को खूनमखून कर दिया है, सरे राह। चीते में भी इतनी चपलता ना हो। कट्टे में पड़ा चाकू निकालकर बूढ़ा झट खड़ा हो गया था। उसने दलाल के सीने पर चाकू रख दिया था-०बोल, थारा कालजा को कांई लाग्यो।०
सिंह शावक सा कुलांचे भरता दलाल का उत्साह, चूहे जैसे भय में परिणत हो गया था। उसकी आंकें बाहर निकल आई थीं। गिरीं, अब गिरीं। चेहरा फक्क पड़ गया था। दलाल अपने पैसे समेट कर भीगी बिल्ली सा चला गया था। झुंझल बूढ़ा की झुररियों में झूलती थी। तमाशबीन दांतों तले अंगुली दबाए ते, बूढ़ा कि शोला। बूढ़ा का मन उचट गया था। हृदय चोट खाई गेंद की नाईं उछल-बैठ रहा था। काला रंग का एक सांड खड़ा हुआ था। बुढ़ऊ पर, जिजीविषा लिए। बूढ़ा उठा और उसके सामने साग की धोती झड़का दी थी।
सड़क के दोनों किनारे मंजिल पर मंजिल बनती जाती थी। दुकानें और शॉपिंग सेंटर खुले थे। बूढ़ा अपना धोती कट्टा लिए उन्हें अपलक निहारता चला जाता था। आह भरता, उसी के खेत में है।
मोड़ था। एक महिला बूढ़ा के सामने घिर गई थी।
नाराजगी भरे अंदाज में वह बूढ़ा से बोली-०बाबा, म्हारा पिसां कांकरा था कांई। ० दूसरां ने प्लॉट बेच दियो।०
बूढ़ा छोह से बिगड़ा-०कै ससुरा ने बेच दियो पिलाट? कै साला ने खरीद लियो, बता तो।०
०मरद मरण नै मर जाएगा, मन की थाह ना देगो।०
वह साड़ी का पल्लू सिर पर लेती, फुच्च फुच्च थूक फुचकती आगे बढ़ गई थी।
बूढ़ा अपने खेत से बाहर निकलताष ०खेत बिकाऊ नहीं है०, अपनी अनगढ़ लिखावट में कागज या गत्ते पर लिख उसे बंद फाटक पर टांक देता। लौटता, कागज या गत्ता नदारद मिलता। हवा ले जाती। गाय मुंह भर जाती। कचरा बीनने वाले झटक ले जाते। बूढ़भस को एक नई सूझी। उसने गेट पर तीन-चार तसला रेत डाल दिया था। बूढ़ा रेत को अपनी हथेली से एकसार करता। अंगुली से गहरी लकीर खींचता और -०खेत बिकाऊ नहीं है।०मांड देता, टेढ़ा-मेढ़ा। बूढ़ा वापस आता। उसका तन-बदन जल उठता। वह इबारत भांति-भांति के खोजों से रौंदी मिलती।
बूढ़ा अपने खेत के सामने ठिठक गया था। कलेजा धक रह गया था। सांसें कपाल जा लगी थीं। फाटक खुला था। पुलिस की गाड़ी बाहर खड़ी थी। बड़े-बड़े खोज अंदर की ओर थे। खेत की नाप-जोख हो रही थी। डी.वाई.एस.पी. खुद फीता पकड़े थे।
खातेदार बूढ़ा हो या बालक, उसमें मालिकाना अहम होता है। बूढ़ा ने बाट-तराजू का कट्टा नीचे पटका। धोती खाट पर फेंकी। बूढ़ा बंदर की फुरती लिए लपका और पुलिस अफसर के हाथ से फीता झटक लिया था-०मरां को माल छै कांई, फीतो डल रहो छै?०
पुलिस अफसर खड़ा रह गया था, सट्ट। तैशभरी आंखें बताईं-०एडवांस नहीं लिया, तुमने।०
०कै ससुरा ने लियो एडवांस? कै साला ने करो कागज पे गूंठो?० बूढ़ा ने उसांस छोड़ी।
उन्होंने स्टांप पेपर की फोटो कॉपी निकाल कर पूछा-०तुम्हारा नाम केरसिंह सैन है?०
०हुं।०
०वल्द भगवानाराम।०
०हुं।०
०उम्र चौहत्तर वषॅ?०
०हुं।०
०साइज दो सौ वगॅ गज?०
०हुं।०
०हुं-हुं-हुं। बाबा साहब, बूढ़ों पर यकीन करना धमॅ मानते हैं। आप हैं कि पांच हजार एडवांस लेकर गिरगिट हो गए।०
०कांई ससुरा ने पाई भी ली, खट्टाराम की सों।० सच्चाई बूढ़े की आंखों में नमी के रूप में उतरी थी।
गेंद पानी में डुबाओ, उछल कर ऊपर आती है। पुलिस अफसर का क्षोभ दबाए नहीं दबता था। उनका मन हुआ था। टोकरे की खपच्चियों जैसी पसलियों के ढांचे इस डोकरे को गाड़ी में पटक कर ले जाए और भांग उगाने का केस बनाकर इसकी बुढ़ौती बिगाड़ दे। चवन्नी की चमक में चाकर का चेहरा या उसके उसके हुक्काम था। बूढ़ा के अफसर बेटे का ख्याल कर उन्होंने अपना फीता समेट लिया था।
बूढ़ा ने अपनी नम आंखें पोंछीं। फाटक को बंद करते हुए अपने बेटे को दाद दी-०मेरो बेटो खट्टाराम बड़ो अफसर छै। फोन माले धरती धूजे। ना तो दो पैरां का जानवर मुनै मोस मीस कदी का खेत डकार जाता। ०
पुलिस अफसर अपनी गाड़ी के पास आकर खड़े हो गए थे। वे वकील को बुलाकर बूढ़ा से रू-ब-रू होना चाहते थे, बयाना के बाद भी मुकर क्यों। दफ्तर से उनका मोबाइल आ गया था। चलो, बाद में बात करते हैं, कसाई का माल पाड़ा खाने से रहा। जग जवर कर रहा है बूढ़ा का सिर घूम रहा था। धोंकनी बढ़ गई ती। मोटियार केरसिंह कभी बीस फीट फौरा कूद जाता था, बूढ़ई डग-डग, झोंपड़ी तक पहुंचा। बल्ली पकड़ ली थी। शरीर में रीढ़ की हड्डी की तरह छान को रोके खड़ी शीशम की यह बल्ली बूढ़ा की हमउम्र थी। किसान अपने खेत खानाबदोश हो जाया करता है। जहां फसल उगाई, झोंपड़ी डाल ली। झोंपड़ी किसानों की निशानी। झोंपड़ी बूढ़ा का आशियाना। बल्ली हमसफर। बल्ली पर रखी छानें, शरीर से पुराने कपड़ों की तरह उतरती रहीं। बल्ली वही रही।
सांस जुड़ी कि बूढ़ा खाट पर बैठ गया था। बिस्तर तले कागज जैसा कुरकुराया। बूढ़ा ने बिस्तर तहा कर देखा। हाथ लिखा दस रुपए का स्टाम्प था। नीचे दो दस्तखत थे। मजमून नोटरी पब्लिक से सत्यापित था। बूढ़ा को डंक सा लगा। कॉलोनी बूढ़ा को जिंदादिल कहती। बूढ़ा खुद को बड़ा हेकड़ मानता था। उसकी डरी-सहमी बूढ़ी आंकें कागज नहीं पढ़ पा रही थीं। बिम्ब बनता कि शब्द फिसल जाते, मानो शब्द नहीं पारा हो, न चुटकी में, न मुट्ठी में।
विपदा की घड़ी, साहस संबल। चस्मा की डंडी पकड़े बूढ़ा कागज पर लिखा पढ़ गया था, शब्द-शब्द। राजफाश। उसका हाथ खाट पर रखी प्लास्टिक की थैली पर गया। कागज पर पांच हजार मंडे थे, वही थे। बूढ़ा को पसीना छूटा।
आक्रोश, भत्सॅना और धिक्कार से बूढ़ा की गदॅन हिलती रही। ०डोकरा हूं न। अकेला हूं, न। दफन कर दो, बिन कफन।० वकील का लंबोतर चेहरा बाघ के मुंह सा भयानक और खाऊं लगा, बूढ़ा को। बीमारी के टेम, वकील ने उसके पेट में घुसकर बातें पूछी थीं। खेत में खड़े पुलिस अफसर ने तस्दीक कर दी थी। बूढ़ा की आंखों मेकं धरती-आसमान घूमने लगे थे। बूढ़ा झटके से उठा। उसने रुपए और कागज धोती-बंध में बांधे। साफा पहना। लाठी ली। लाठी पर बूढ़ा की मुट्ठियां कसती गई थीं।
सांझ उतर रही थी। दीया-बाती का वक्त होने को था। आग का भभूका सा बूढ़ा०खेत ना बेचूं, खेत ना बेचूं० बरराता वकील के घर के सामने जाकर रुका। उसने घंटी के बटन पर अंगुली दबाई, घंटी नहीं, टेंटुआ हो। घंटी कुकड़ूं-कूं, कुकड़ूं-कूं, कुकड़ूं-कूं बोली। झबर बालों वाला एक कुत्ता लपक कर आया। वह बूढ़ा को भूंकता गेट नोंचने लगा था। बूढ़ा ने ठोरा मारा। कुत्ता डरकर दीवार के साथ जा लगा था।
लुंगी बांधे कुरता गदॅ में डालते हुए वकील बाहर निकले। बूढ़ा को देख बाग-बाग हुए। वकील की अकल। अक्खड़ बूढ़ा खुद गेट पर है।
वकील ने एक सुखद आह ली-०वकालत तो यूं ही टुच्च-टुच्च है। धंधा प्लॉटों की दलाली। दो थोक पचास हजार आएंगे।०
गेट खोलते हुए वकील बूढ़ा से मुखातिब हुए-०बाबा साहब, स्टाम्प पर निशान लगाया था, वहां दस्तखत कर दिए न, आपने?०
बूढ़ा ने अडूंस खोली। स्टाम्प की चिंदी-चिंदी कर वकील पर फेंक दी। रुपए की थैली सामने पटकी। उसने गेट पर लाठी ठकठकाई-०वकील छौ ना। केरसिंह पागल कोनी, कालजो बेच दे अपणो।०
बूढ़ा लाठी उठाए कि वकील ने गेट बंद कर लिया था।

तो कहानी तो हुई खत्म। अब आपको भी महसूस हुआ होगा कि मैंने इस कहानी के विषय में ऊपर जो भी कहा है, इस कहानी में छिपे गुणों की तुलना में शतांश भी नहीं है। हां, फोंट की अनुपलब्धता के कारण विराम चिह्न संबंधी अशुद्धियां रह गई हैं, इसके लिए क्षमा चाहता हूं। आपने धैयॅ के साथ यह कहानी पढ़ी, इसके लिए साधुवाद। इसमें कुछ भी अच्छा लगा हो, आप इसके लिए रत्न कुमार सांभरिया जी को बधाई दे सकते हैं।

Friday, January 4, 2008

ताराप्रकाश जोशी और रत्न कुमार सांभरिया को राजस्थान पत्रिका सृजनात्मक अवाडॅ

राजस्थान के प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्र राजस्थान पत्रिका की ओर से प्रतिवषॅ साहित्य के क्षेत्र में सृजनात्मक लेखन के लिए दिए जाने पुरस्कारों के तहत वषॅ २००७ का सवॅश्रेष्ठ कविता का पुरस्कार जयपुर के वरिष्ठ अथ च प्रख्यात कवि व गीतकार ताराप्रकाश जोशी और सवॅश्रेष्ठ कहानी का पुरस्कार कथाकार रत्न कुमार सांभरिया को दिया जाएगा। जोशी के लगभग आधा दजॅन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उन्हें यह पुरस्कार १४ अक्टूबर २००७ को राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित उनकी कविता-बेटी की किलकारी-के लिए प्रदान किया जाएगा। सांभरिया को यह पुरस्कार राजस्थान पत्रिका के २७ मई २००७ के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित उनकी कहानी-खेत-के लिए दिया जाएगा। दोनों साहित्यकारों को पुरस्कार के रूप में ग्यारह-ग्यारह हजार रुपए और प्रशस्ति पत्र प्रदान किए जाएंगे। ये पुरस्कार उन्हें ६ जनवरी को होने वाले पं. झाबरमल्ल शरमा स्मृति व्याख्यानमाला के तहत आयोजित होने वाले समारोह में प्रदान किए जाएंगे।
पिछले ग्यारह वषॅ से राजस्थान पत्रिका सृजनात्मक पुरस्कार कहानी व कविता वगॅ में निरंतर प्रदान किए जा रहे हैं। कविता वगॅ में पूवॅ में पुरस्कृत होने वालों में हैं - गोपालदास नीरज, मंगल सक्सेना, हरीश करमचंदाणी, भगवतीलाल व्यास, माधव नागदा, रामनाथ कमलाकर, गुरमीत बेदी, गोपाल गगॅ, अम्बिका दत्त, गोविंद माथुर और उमेश अपराधी। कहानी वगॅ में यादवेंद्र शरमा चंद्र, से. रा. यात्री, सावित्री परमार, यश गोयल, ज्ञान प्रकाश विवेक, साबिर हुसैन, मुरलीधर वैष्णव, सावित्री रांका, कुंदन सिंह परिहार, महीप सिंह और संगीता माथुर इससे पहले पुरस्कृत हो चुके हैं।

तो अब आप पढ़िए आदरणीय ताराप्रकाश जोशी की कविता या गुनगुनाइये यह गीत (क्योंकि यह सहज ही गेय भी है) जिसके लिए उन्हें पुरस्कृत किया जाएगा। इस कविता में कन्याभ्रूण हत्या से मानवता को होने वाले नुकसान और बेटियों की महत्ता पर कवि ने अंतमॅन की संवेदना को स्वर देने की सफल कोशिश की है।

बेटी की किलकारी

कन्या भ्रूण अगर मारोगे
मां दुरगा का शाप लगेगा।
बेटी की किलकारी के बिन
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
जिस घर बेटी जन्म न लेती
वह घर सभ्य नहीं होता है।
बेटी के आरतिए के बिन
पावन यज्ञ नहीं होता है।
यज्ञ बिना बादल रूठेंगे
सूखेगी वरषा की रिमझिम।
बेटी की पायल के स्वर बिन
सावन-सावन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

जिस घर बेटी जन्म न लेती
उस घर कलियां झर जाती है।
खुशबू निरवासित हो जाती
गोपी गीत नहीं गाती है।
गीत बिना बंशी चुप होगी
कान्हा नाच नहीं पाएगा।
बिन राधा के रास न होगा
मधुबन-मधुबन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

जिस घर बेटी जन्म न लेती,
उस घर घड़े रीत जाते हैं।
अन्नपूरणा अन्न न देती
दुरभिक्षों के दिन आते हैं।
बिन बेटी के भोर अलूणी
थका-थका दिन सांझ बिहूणी।
बेटी बिना न रोटी होगी
प्राशन-प्राशन नहीं रहेगा
आंगन-आंगन नहीं रहेगा

जिस घर बेटी जन्म न लेती
उसको लक्षमी कभी न वरती।
भव सागर के भंवर जाल में
उसकी नौका कभी न तरती।
बेटी की आशीषों में ही
बैकुंठों का वासा होता।
बेटी के बिन किसी भाल का
चंदन-चंदन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

जिस घर बेटी जन्म न लेती
वहां शारदा कभी न आती।
बेटी की तुतली बोली बिन
सारी कला विकल हो जाती।
बेटी ही सुलझा सकती है,
माता की उलझी पहेलियां।
बेटी के बिन मां की आंखों
अंजन-अंजन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

जिस घर बेटी जन्म न लेगी
राखी का त्यौहार न होगा।
बिना रक्षाबंधन भैया का
ममतामय संसार न होगा।
भाषा का पहला स्वर बेटी
शब्द-शब्द में आखर बेटी।
बिन बेटी के जगत न होगा,
सजॅन, सजॅन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

जिस घर बेटी जन्म न लेती
उसका निष्फल हर आयोजन।
सब रिश्ते नीरस हो जाते
अथॅहीन सारे संबोधन।
मिलना-जुलना आना-जाना
यह समाज का ताना-बाना।
बिन बेटी रुखे अभिवादन
वंदन-वंदन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

कवि और गीतकार ताराप्रकाश जोशी की रचनाओं में सहज ही पाठक-श्रोता के हृदय में समा जाने की क्षमता है, जिससे आप अब तक परिचित हो चुके होंगे। इस ब्लॉग पर भविष्य में उनकी रचनाओं का रसास्वादन कराने का वादा है मेरा।
कथाकार रत्नकुमार सांभरिया ने अपनी कहानी-खेत-में किन भावनाओं को छुआ है कि यह कथा पुरस्कार की हकदार बनी, इसकी उत्कंठा मुझे भी है, आपको भी होगी। अस्तु, शीघ्र ही उनकी यह पुरस्कृत कहानी और अन्य प्रतिनिधि कहानियां आपके सामने प्रस्तुत करूंगा। दोनों साहित्यकारों को मेरी अथ च आप सभी की ओर से कोटिशः बधाई और मंगलकामनाएं। तो आज बस इतना ही।
(फोंट की अनुपलब्धता या फिर मेरी उनके बारे में अज्ञानता के कारण कविता में कुछ अशुद्धियां रह गई हैं, इसके लिए माफी चाहता हूं)

साहित्य-संस्कृति-कला की त्रिवेणी में स्वागत है आपका

इस अपार संसार सागर में साहित्य की महिमा निराली है। इस सागर में कुछ ऐसे मोती हैं, जिनकी आभा से साहित्य जगत आलोकित होता है और हम-आप सरीखे साहित्यप्रेमी आनंदित। इन मोतियों को किसी प्रचार-प्रसार की तमन्ना नहीं होती है मगर फूल की खुशबू को हवा बिना किसी एप्रोच के वातावरण में बिखेर देती है। संस्कृति का प्रवाह तो हम सबमें सरस्वती की धारा की तरह अंदर ही अंदर प्रवाहित होती ही रहती है। इसके बिना तो श्वास-प्रश्वास ही नहीं चले, से इसका ऋण है हम सभी पर। इससे उऋण होना तो संभव ही नहीं है, लेकिन इससे जुड़ी घटनाओं का प्रचार-प्रसार कर उऋण होने का प्रयास तो किया ही जा सकता है। कला तो हर किसी की चाहत होती ही है। तो मेरे इस ब्लॉग पर साहित्य, संस्कृति, कला और इस सरीखी अन्य जानकारियां प्रस्तुत करने का लघु प्रयास है यह मेरा। यहां मेरे ही नहीं, आप सभी के प्रिय साहित्यकारों की प्रतिनिधि रचनाएं तथा विशेषकर गुलाबी नगरी जयपुर की साहित्य-संस्कृति-कला जगत से जुड़ी गतिविधयों की जानकारी देने की कोशिश होगी मेरी। आप सब भी इस यज्ञ में आहुति देने के लिए सादर आमंत्रित हैं। कोई भी सूचना आप manglammk@gmail.com पर प्रेषित कर मुझे कृताथॅ कर सकते हैं।

नववर्ष की मंगलकामनाओं के साथ

मोहन कुमार मंगलम, जयपुर