Friday, September 1, 2017

फणीश्वरनाथ के साथ यूं जुड़ा रेणु

मेरा उपनाम सौभाग्य या दुर्भाग्यवश मेरा घराऊ नाम भी है । जन्मते ही घर में ऋण हुआ, इसलिए दादी प्यार से रिनुवां कहने लगीं। रिनुवां से रुनु और अंतत: " रेणु " । जब तुकबंदी करने लगा, तब छंद के अंत में अनायास ही - " कवि रेणु कहे कब रैन कटे, तमतोम घटे ..." जुड़ गया । और उपनाम की प्रेरणा लेखकों को शायद सहस्रनामधारी विष्णु महाराज से ही मिली होगी । - फणीश्वरनाथ रेणु ( वर्षों पहले कादम्बिनी में) 19 July 2017

प्रेमचंद आज मिले पार्क में

आज मॉर्निंग वॉक पर गया तो लंबे-चौड़े अरविन्दो पार्क के ट्रैक पर कदमताल कर रहे अलग- अलग उम्र वर्ग के पुरुष-महिलाएं अपनी-अपनी बातें शेयर करने में लगे थे। 60-65 वर्ष आयुवर्ग के पांच सज्जन मेरे आगे चल रहे थे। उनकी बातचीत सुनकर मैंने अपनी रफ्तार थोड़ी कम कर दी। उनमें से एक सज्जन अपने साथियों को मुंशी प्रेमचंद की कहानी " बाबाजी का भोग" सुना रहे थे। वे बता रहे थे कि परंपराओं का पालन करते हुए खुद भूखे रहकर दरवाजे पर आए साधु की आवभगत करता है । दरअसल कल मुंशी प्रेमचंद की जयंती थी और एक दैनिक समाचार पत्र ने साप्ताहिक रविवारीय परिशिष्ट में यह मशहूर कहानी छापी थी। इसे लोगों की बातचीत के विषय में शामिल होने से दिल को काफी सुकून मिला। लगा कि साहित्य के प्रति समाज आज भी संवेदनशील है। और सबसे बड़ी बात कि उपनिषद-पुराणों में वर्णित आख्यानों की तरह जब कोई रचना समाज में जनसामान्य के संवाद के दौरान दृष्टांत की तरह पेश की जाने लगे तो वह रचनाकार भी अमर हो जाता है । परम श्रद्धेय प्रेमचंद भी इसी श्रेणी के रचनाकार हैं। उन्हें कोटि- कोटि नमन... 01 August 2017