Sunday, October 4, 2009
फलसफा जिंदगी का
लंबे समय बाद एक बार फिर अपने इस ब्लॉग में प्राणवायु डालने का प्रयास कर रहा हूं। शनिवार को दिल्ली से प्रकाशित एक दैनिक अखबार में प्रकाशित निदा फाजली की ये पंक्तियां दिल को छू गईं। आप भी पढ़कर देखिए, शायद अच्छी लगें -
घर की तामीर चाहे जैसी हो
इसमें रोने की कुछ जगह रखना।।
जिस्म में फैलने लगा है शहर
अपनी तन्हाइयां बचा रखना।।
मस्जिदें हैं नमाजियों के लिए
अपने दिल में कहीं खुदा रखना।।
मिलना-जुलना जहां जरूरी हो
मिलने-जुलने का हौसला रखना।।
उम्र करने को है पचास को पार
कौन है किस जगह पता रखना।।
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