Friday, December 18, 2009
सियासत नफरतों का जख्म भरने ही नहीं देती
मशहूर शायर मुनव्वर राना ने अपनी रचनाओं में बहुत ही सरल शब्दों में जीवन के सत्य को उद्घाटित करने का स्तुत्य प्रयास किया है। दिल्ली से प्रकाशित राष्ट्रीय हिंदी दैनिक में बुधवार १६ दिसंबर को प्रकाशित उनकी इस रचना का आनंद लीजिए -
बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है,
न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है।
यही मौसम था जब नंगे बदन छत पर टहलते थे,
यही मौसम है अब सरदी सीने में बैठ जाती है।
चलो माना कि शहनाई मसर्रत की निशानी है,
मगर वह शख्स जिसकी आके बेटी बैठ जाती है।
बड़े-बूढ़े कुएं में नेकियां क्यों फेंक आते हैं,
कुएं में छुप कर क्यों ये नेकी बैठ जाती है।
सियासत नफरतों का जख्म भरने ही नहीं देती,
जहां भरने पे आता है तो मक्खी बैठ जाती है।
वो दुश्मन ही सही आवाज दे उसको मुहब्बत से,
सलीके से बिठाकर देख हड्डी बैठ जाती है।
Wednesday, December 9, 2009
...इक तेरे कहने से क्या मैं बेवफा हो जाऊंगा
मशहूर शायर वसीम बरेलवी को कई कवि सम्मेलनों और मुशायरों में सुनने का सुअवसर मिला है। तरन्नुम में उन्हें सुनना दिलो-दिमाग में ताजगी भर देता है। दिल्ली से प्रकाशित एक हिंदी दैनिक के स्थायी स्तंभ -रंग ए जिंदगानी- में मंगलवार को प्रकाशित उनकी ये पंक्तियां गौर फरमाइए...
अपने हर लफ्ज का खुद आईना हो जाऊंगा,
उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊंगा।
तुम गिराने में लगे थे तुमने सोचा भी नहीं,
मैं गिरा तो मसअला बनकर खड़ा हो जाऊंगा।
मुझको चलने दो अकेला है अभी मेरा सफर,
रास्ता रोका गया तो काफिला हो जाऊंगा।
सारी दुनिया की नजर में है मेरी अहद-ए-वफा,
इक तेरे कहने से क्या मैं बेवफा हो जाऊंगा।
Friday, December 4, 2009
...कोई आएगा दिल को आस रहे
मशहूर शायर बशीर बद्र ने अपनी गजलों में जिंदगी के अनेक रंग दिखाए हैं। दिल्ली से प्रकाशित राष्ट्रीय स्तर के हिंदी दैनिक के कॉलम -रंग ए जिंदगानी- में गुरुवार को प्रकाशित यह गजल पेश है। आप भी इसका लुत्फ उठाइए
खुश रहे या बहुत उदास रहे,
जिंदगी तेरे आसपास रहे।
चांद इन बदलियों से निकलेगा,
कोई आएगा दिल को आस रहे।
हम मुहब्बत के फूल हैं शायद,
कोई कांटा भी आसपास रहे।
मेरे सीने में इस तरह बस जा,
मेरी सांसों में तेरी बास रहे।
आज हम सब एक साथ खूब हंसे,
और फिर देर तक उदास रहे।
Tuesday, December 1, 2009
...चांद ने कितनी देर लगा दी आने में
प्रख्यात गीतकार गुलजार ने हिंदी फिल्मी दुनिया के साथ साहित्य जगत को भी गुलजार किया है। नई दिल्ली से प्रकाशित एक प्रमुख हिंदी दैनिक के स्तंभ-रंग-ए-जिंदगानी- में सोमवार को प्रकाशित गुलजार की रचना का आप भी लुत्फ उठाएं.....
खुशबू जैसे लोग मिले अफसाने में,
एक पुराना खत मिला अनजाने में।
जाना किसका जिक्र है इस अफसाने में,
ददü मजे लेता है जो दुहराने में।
शाम के साये बालिस्तों से नापे हैं,
चांद ने कितनी देर लगा दी आने में।
रात गुजरते शायद थोड़ा वक्त लगे,
जरा सी धूप दे उन्हें मेरे पैमाने में।
दिल पर दस्तक देने ये कौन आया है,
किसकी आहट सुनता है वीराने में।
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