अभी-अभी हमने ज्योतिपर्व दीपावली मनाई। हजारों करोड़ रुपए मिठाइयों और आतिशबाजी पर खर्च कर दिए गए, लेकिन खुशी के इस माहौल में लाखों घर ऐसे भी रहे, जहां गरीबी-फाकाकशी का अंधेरा छाया रहा। ऐसे में कर्नल वी. पी. सिंह की यह कविता हृदय को बरबस ही कचोटती है। आप भी इस कविता का रसास्वादन कर महससूस करें कि देश की वास्तविक स्थिति क्या और कैसी है......
क्या सचमुच आजाद हुए हम...
जश्न कहीं हो किसी भवन में, डूबी जब बस्ती क्रंदन में
तब आंधी चलती चिंतन में और प्रश्न उठता है मन में
क्या सचमुच आजाद हुए हम...
पहले भी खुदगर्ज कई थे पर सब कुछ व्यापार नहीं था
संबंधों में अपनापन था रिश्तों का बाजार नहीं था
खुशबू बसती थी खेतों में, पड़ते थे सावन में झूले
अब कागज के फूल सजाकर उन मीठे गीतों को भूले
तुलसी की चौपाई जलती जब फिल्मी धुन के ईंधन में
तब आंधी चलती चिंतन में...
माना अनपढ़ थे बाबूजी, मां थी उपवासों की मारी
भाई की अपनी मजबूरी, भाभी की अपनी लाचारी
सज्जा के सामान नहीं थे, होड़ नहीं थी दिखलाने की
सब कुछ खोने में खुशियां थीं, चाह नहीं ज्यादा पाने की
तब टूटा घर, घर लगता था अब सूनापन है आंगन में
तब आंधी चलती चिंतन में...
पहले भी शासक होते थे, पर वे इतने क्रूर नहीं थे
ऊंचे महलों में रहकर भी वे जनता से दूर नहीं थे
न्याय उठाकर सर चलता था, तब गुंडों को छूट नहीं थी
भरे बीहड़ों में डाकू थे फिर भी इतनी लूट नहीं थी
आज दंड मिलता निर्बल को, अपराधी बैठे शासन में
तब आंधी चलती चिंतन में...
आज समय ऐसा आया है, अनुशासन का नाम नहीं है
जो रिश्वत से ना हो पाए ऐसा कोई काम नहीं है
झूठी कसमें हैं गीता पर शपथ खोखली राजघाट पर
गंगाजल तक बेच रहे हैं, चोर-उचक्के घाट-घाट पर
भक्त ठगे जाते मथुरा में, भक्तिन लुटती वृंदावन में
तब आंधी चलती चिंतन में...
कहीं महल में अट्टहास है कहीं झोपड़ी में मातम है
पेट जिसे भरने हो जितने वह पाता उतना ही कम है
कहीं लड़कपन बिना खिलौने, बिना स्नेह यौवन बढ़ता है
और कहीं कोई मस्ती में जीवन की सीढ़ी चढ़ता है
कहीं लाश सड़ती सड़कों पर और कहीं जलती चंदन में
तब आंधी चलती चिंतन में...
कोई सीमाओं पर आकर हमको आंख दिखा जाता है
हम हैं कौन कहां से आए कोई आकर बतलाता है
कोई कहता मान्य नहीं है शस्त्रों का भंडार तुम्हारा
कोई कहता हम जितना दें, उतना ही अधिकार तुम्हारा
भारत जब प्रतिबंधित होता वाशिंगटन, पेरिस, लंदन में
तब आंधी चलती चिंतन में...
आजादी का अर्थ नहीं है केवल सत्ता का परिवर्तन
आजादी का अर्थ नहीं है चंद चुने मोरों का नर्तन
आजादी का अर्थ नहीं है इक दिन झंडों का लहराना
आजादी का अर्थ नहीं है सबका उच्छृंखल हो जाना
कोई पगडंडी जब खोती संसद गृह के आकर्षण में
तब आंधी चलती चिंतन में...
आजादी है खुली हवा के झोंकों का सबको छू जाना
आजादी है ओस सरीखी नर्म पत्तियों पर चू जाना
आजादी है इंद्रधनुष के रंगों का मिल-जुलकर रहना
आजादी है निर्झरिणी सा सबके हित की खातिर बहना
आजादी जब परिभाषित हो बंधती सत्ता के बंधन में
तब आंधी चलती चिंतन में...
तब आंधी चलती चिंतन में और प्रश्न उठता है मन में
क्या सचमुच आजाद हुए हम...
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