नववर्ष के स्वागत में 31 दिसंबर की मध्यरात्रि के बाद से आयोजनों का सिलसिला शुरू होगा जो कई दिनों तक चलेगा, लेकिन जयपुर की संस्था रसकलश ने जाते हुए वर्ष 2010 की विदाई में 29 दिसंबर की शाम जवाहर कला केंद्र के रंगायन सभागार में 'रजनीगंधाÓ काव्य संध्या सजाई। शाम जैसे-जैसे गहराती गई, शायरी भी विभिन्न रंगों को अपने दायरे में समेटती चली गई। इसमें बरेली से आए प्रो. वसीम बरेलवी और ग्वालियर के मदन मोहन दानिश ने अपनी रचनाओं से श्रोताओं को गदगद कर दिया। ये शायर किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं और इसमें पाठकों का समय न लेते हुए मैं सीधे आपको इनकी रचनाओं से ही रू-ब-रू कराता हूं। अगली कड़ी में प्रो. वसीम बरेलवी की रचनाओं से रू-ब-रू कराऊंगा, जिसमें जिंदगी के कई रंग देखने को मिलेंगे।
तो शुरू करते हैं मदन मोहन दानिश से :
अगर लब पर किसी के सिर्फ एक मुस्कान होती है,
तो फिर अनजान सूरत भी कहां अनजान होती है।
पत्थर पहले खुद को पत्थर करता है,
उसके बाद ही कुछ कारीगर करता है।
एक जरा सी किश्ती ने ललकारा है,
अब देखें क्या ढोंग समंदर करता है।
दर्द सीने में छिपाए रखा, हमने माहौल बनाए रखा।
मौत आई थी कई दिन पहले, उसको बातों में लगाए रखा।।
धीरे-धीरे ठहर-ठहरकर आता है,
कोई हुनर जीते जी मरकर आता है।
गैर जरूरी कम कर दो शृंगार अगर,
फिर देखो क्या रूप निखरकर आता है।
बस मुश्किल से बचकर निकलना आता है,
अब किसको माहौल बदलना आता है।
भेष बदलने में तुम माहिर हो बेशक,
उसको तो किरदार बदलना आता है।
आज उसी की दुनिया है दानिश साहब,
जिसको हर सांचे में ढलना आता है।
कमरे के जिस कोने में गुलदान रहा,
जाने क्यों बस वो कोना वीरान रहा।
बीच भंवर से किश्ती कैसे बच निकली,
बहुत दिनों तक दरिया भी हैरान रहा।
आंसू को मुस्कान बनाना आता है,
इस मोती का मोल बढ़ाना आता है।
रातों का कितना अहसान है मुफलिस पर,
ख्वाब में उसके रोज खजाना आता है।
मेरी हर गुफ्तगू जमीं से रही, यूं तो फुरसत में आसमान भी था।
जब नतीजा सुनाया लोगों ने, तब लगाया ये मेरा इम्तिहान भी था।
जब मेरे पांव से जमीन खिसकी, तब लगा सर पे आसमान भी था।
हो गए तुम फिर कहीं आबाद क्या
हिल गई तन्हाई की बुनियाद क्या
अच्छी रौनक है तुम्हारी बज्म में
आ गए सब शहर के बरबाद क्या।
ये माना इस तरफ रास्ता न जाए,
मगर फिर भी मुझे रोका न जाए।
उलझने के लिए सौ उलझनें हैं,
बस अपने आप से उलझा न जाए।
बदल सकती है रुख तस्वीर अपना,
कुछ इतने गौर से देखा न जाए।
बड़ी कीमत अदा करनी पड़ेगी,
किसी मासूम को परखा न जाए।
हमारी अर्ज बस इतनी है दानिश,
उदासी का सबब पूछा न जाए।
जब अपनी बेकली में बेखुदी से कुछ नहीं होता,
पुकारें क्यों किसी को हम, किसी से कुछ नहीं होता।
सफर हो रात का तो हौसला ही काम आता है,
अंधेरों में अकेली रोशनी से कुछ नहीं होता।
कोई जब शहर से जाए तो रौनक रूठ जाती है,
किसी की शहर में मौजूदगी से कुछ नहीं होता।
चमक यूं नहीं पैदा हुई है मेरी जां तुझमें,
न कहना फिर कभी तू बेरुखी से कुछ नहीं होता।
तुम्हें दुश्वार है हंसना है, मुझे दुश्वार रोना है,
यहीं लगता है दानिश आदमी से कुछ नहीं होता।
रंगे दुनिया कितना गहरा हो गया,
आदमी का रंग फीका हो गया।
डूबने की जिद पर किश्ती आ गई,
बस यहीं मजबूर दरिया हो गया।
रात क्या होती है हमसे पूछिए,
आप तो सोए सवेरा हो गया।
आज खुद को बेचने निकले थे हम,
आज ही बाजार मंदा हो गया।
गम अंधेरे का नहीं दानिश, मगर
वक्त से पहले अंधेरा हो गया।
मैं खुद से किस कदर घबरा रहा हूं,
तुम्हारा नाम लेता जा रहा हूं।
गुजरता ही नहीं वो एक लम्हा,
इधर मैं हूं कि बीता जा रहा हूं।
इसी दुनिया में जी लगता था मेरा,
इसी दुनिया से अब घबरा रहा हूं।
ये नादानी तो क्या है दानिश,
समझना था जिससे समझा रहा हूं।
अगर कुछ दांव पर रखें तो सफर आसान होगा क्या?
मगर जो दांव पर रखेंगे वो ईमान होगा क्या?
कमी कोई भी हो वो भी जिंदगी में रंग भरती है,
अगर सब कुछ मिल जाए तो फिर अरमान होगा क्या?
कहानी का अहम किरदार क्यों खामोश है दानिश,
कहानी का सफर आगे बहुत वीरान होगा क्या?
हम अपने दुख को गाने लग गए हैं,
मगर इसमें जमाने लग गए हैं।
किसी की तरबीयत का है करिश्मा,
ये आंसू मुस्कुराने लग गए हैं।
ये हासिल है मेरी खामोशियों का
कि पत्थर आजमाने लग गए हैं।
मेरा बचपन यहां तक आ गया है,
मेरे सानों से साने लग गए हैं।
जिन्हें हम मंजिलों तक लेकर आए,
वही रास्ता दिखाने लग गए हैं।
शराफत रंग दिखलाती है दानिश,
सभी दुश्मन ठिकाने लग गए हैं।
कभी मायूस मत होना किसी बीमार के आगे,
भला लाचार क्या होना किसी लाचार के आगे।
मोहब्बत करने वाले जाने क्या तरकीब करते हैं,
बगरना लोग तो बुझ जाते हैं इनकार के आगे।
बिकाऊ कर दिया दुनिया को जिसने होशियारी से,
बिछी जाती है ये दुनिया उसी बाजार के आगे।
डराता है किसी मंजिल पर आकर ये तजस्सुस भी,
न जाने कौन सा मंजर हो किस दीवार के आगे।
किसी ठहरे हुए लम्हे की कीमत वक्त से पूछो,
उसी से टूटकर लम्हा रहा रफ्तार के आगे।
मुझको हर शख्स भला लगता है,
बस यही सबको बुरा लगता है।
हर तरफ प्यार है इज्जत है यहां,
ये इलाका तो नया लगता है।
बात बनती अगर बनाने से,
हम भी होते कहीं ठिकाने से।
वो कहां दूर तक गये दानिश,
जो परिंदे उड़े उड़ाने से।
खुद से यूं नाराजगी अच्छी नहीं,
हर तरफ से वापसी अच्छी नहीं।
कुछ का कुछ दानिश नजर आने लगे,
इस कदर भी रोशनी अच्छी नहीं।
ये साहिल के तमाशाई हैं मंजर देखने वाले,
समंदर में तो उतरेंगे समंदर देखने वाले।
सितारे कुछ बताते हैं नतीजा कुछ निकलता है,
बड़ी हैरत में हैं मेरा मुकद्दर देखने वाले।
करीना देखने का देखिए बस इनको आता है,
बहुत कुछ देख लेते हैं ये छुपकर देखने वाले।
सफर का रुख बदलकर देखते हैं,
तुम्हारे साथ चलकर देखते हैं।
कोई दस्तक पे दस्तक दे रहा है,
उठो दानिश निकलकर देखते हैं।
इधर क्या-क्या अजूबे हो रहे हैं,
मरीजे दिल भी अच्छे हो रहे हैं।
मोहब्बत, रतजगे, आवारागर्दी
जरूरी काम सारे हो रहे हैं।
जरा सी जिंदगी है चार दिन की,
उसी में सब तमाशे हो रहे हैं।
कभी आंसू कभी मुस्कान दानिश,
मोहब्बत है, करिश्मे हो रहे हैं।
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