Friday, December 31, 2010
...तो हर बात सुनी जाती है
हां, तो सभी साहित्य प्रेमी मित्रों को नववर्ष की मंगलकामनाओं के साथ प्रस्तुत है जयपुर की संस्था रसकलश की ओर से 29 दिसंबर की शाम जवाहर कला केंद्र के रंगायन सभागार में संजोई गई 'रजनीगंधाÓ काव्य संध्या से प्रो. वसीम बरेलवी की रचनाओं का गुलदस्ता। यह जैसे-जैसे आपके सामने आएगा, जीवन के कई रंग आपके सामने आते जाएंगे। जीवन-दर्शन, खेल-राजनीति, संस्कार-संस्कृति से लेकर वर्तमान हालात और इसमें फंसे मनुपुत्रों की मजबूरियां.... सब कुछ उनकी रचनाओं के विषय हैं। सीधे-सपाट शब्दों में बड़ी से बड़ी बातें कहने का क्या हुनर पाया है वसीम साहब ने...... विशेष तो क्या कहूं आप स्वयं पढ़कर देख लें-
जमीं तो जैसी है वैसी ही रहती है लेकिन,
जमीन बांटने वाले बदलते रहते हैं।
पतंग जैसा ये उडऩा भी कोई उडऩा है,
कि उड़ रहे हैं मगर दूसरों के हाथ में।
इस जमाने का बड़ा कैसे बनूं मैं,
इतना छोटापन मेरे वश का नहीं।
आगे बढऩा है तो आवाजें सुनी जाती नहीं,
रास्ता देने का मतलब है कि खुद पीछे रहो।
कहां गईं मेरे चेहरे की झुर्रियां सारी,
ये नन्हें बच्चे के हाथों ने क्या कमाल किया।
रोशनी से हैं दामन बचाए,
कितने खुद्दार होते हैं साये।
पानी पे तैरती हुई ये लाश देखिए,
और सोचिए कि डूबना कितना मुहाल है।
गरीब लहरों पे पहरे बिठाए जाते हैं,
समंदरों की तलाशी कोई नहीं लेता
नहीं गोदें बदलना चाहता है, ये बच्चा पांव चलना चाहता है।
वो मेरे साथ चलना चाहता है, कि मुझको ही बदलना चाहता है।
तखातुब में जो मेरे नाम का एलान हो जाए,
तुम्हारा क्या बिगड़ता है मेरी पहचान हो जाए।
किसी से कोई भी उम्मीद रखना छोड़कर देखो,
तो ये रिश्ते निभाना किस कदर आसान हो जाए।
(तखातुब = संबोधन)
न पाने से किसी के है न कुछ खोने से मतलब है,
ये दुनिया है, इसे तो कुछ न कुछ होने से मतलब है।
घर पर एक शाम भी जीने का बहाना न मिले,
सीरियल खत्म न हो जाए तो खाना न मिले।
इन्हीं गलियों में सभी खो गए चलते-फिरते,
घर से निकलूं तो कोई यार पुराना न मिले।
घरों की तरबियत क्या आ गई टीवी के हाथों में,
कोई बच्चा अब अपने बाप के ऊपर नहीं जाता।
मोहब्बत के ये आंसूं हैं इन्हें आंखों में रहने दो,
शरीफों के घरों का मसला कभी बाहर नहीं जाता।
मैं उसके घर नहीं जाता वो मेरे घर नहीं आता,
मगर इन एहतियातों से ताल्लुक मर नहीं जाता।
बुरे-अच्छे हों जैसे भी हों सभी रिश्ते यहीं के हैं,
किसी को साथ दुनिया से लेकर कोई नहीं जाता।
मेरे अंदर जो सच्चाई बहुत है,
जला कुछ भी तो आंच आई बहुत है।
किसी मजलूम की आंखों से देखा,
तो ये दुनिया नजर आई बहुत है।
(मजलूम = प्रताडि़त)
तुझी को आंख भर कर देख पाऊं,
मुझे बस इतनी बीनाई बहुत है।
नहीं चलने लगी यूं मेरे पीछे,
ये दुनिया मैंने ठुकराई बहुत है।
(बीनाई = देखने की क्षमता)
रातभर शहर की दीवारों पर गिरती रही ओस,
और सूरज को समंदर से ही फुरसत नहीं मिली।
मुझे गम है तो बस इतना ही गम है,
तेरी दुनिया मेरी ख्वाबों से कम है।
तुम्हारा साथ भी छूटा तुम अजनबी भी हुए,
मगर जमाना तुम्हें अब भी मुझमें ढूंढता है।
ये सोचकर कोई अहदे वफा करो हमसे,
हम एक वादे पे उमरें गुजार देते हैं।
तुम्हारे बारे में कुछ सोचने का हक भी नहीं,
मगर तुम्हारे ही बारे में सोचता हूं मैं।
तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूं मैं,
कि तुम अगर मिल भी जाओ तो अब मिलने का गम होगा।
मैं जिन दिनों तेरे बारे में सोचता हूं बहुत,
उन्हीं दिनों तो ये दुनिया समझ में आती है।
क्या अजब आरजू घर के बूढ़ों की है,
शाम हो तो कोई घर से बाहर न हो।
जिसको कमतर समझते रहे हो वसीम
मिलके देखो कहीं तुमसे बेहतर न हो।
तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते,
इसीलिए तो तुम्हें हम नजर नहीं आते।
मोहब्बतों के दिलों की यही खराबी है,
ये रूठ जाएं तो फिर लौटकर नहीं आते।
जिन्हें सलीका है तहजीबे गम समझने का,
उन्हीं के रोने में आंसू नजर नहीं आते।
खुशी की आंख में आंसू की भी जगह रखना,
बुरे जमाने कभी पूछकर नहीं आते।
आंखों-आंखों रहे और कोई घर न हो,
ख्वाब जैसा किसी का मुकद्दर न हो।
क्या बताऊं कैसा खुद को दर-बदर मैंने किया,
उम्रभर किस किसके हिस्से का सफर मैंने किया।
तू तो नफरत भी न कर पाएगा इस शिद्दत के साथ,
जिस बला का प्यार तुझसे बेखबर मैंने किया।
हमारा अज्मे सफर कब किधर का हो जाए,
ये वो नहीं जो किसी रहगुजर का हो जाए।
उसी को जीने का हक है जो इस जमाने में,
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए।
(अज्म = इरादा)
सबने मिलाए हाथ यहां तीरगी के साथ,
कितना बड़ा मजाक हुआ रोशनी के साथ।
शर्तें लगाई जाती नहीं दोस्ती के साथ,
कीजिए मुझे कबूल मेरी हर कमी के साथ।
किस काम की रही ये दिखावे की जिंदगी,
वादे किए किसी से गुजारी किसी के साथ।
(तीरगी = अंधकार)
मोहब्बत में बुरी नीयत से कुछ सोचा नहीं जाता,
कहा जाता है उसको बेवफा समझा नहीं जाता।
झुकाता है ये सर जिसकी इबादत के लिए उस तक,
तेरा जज्बा तो जाता है तेरा सज्दा नहीं जाता।
दिल में मंदिर का सा माहौल बना देता है,
कोई एक शमां सी हर शाम जला देता है।
जिंदगी दी है तो ये शर्ते इबादत न लगा,
पेड़ का साया भला पेड़ को क्या देता है।
उसने क्या लाज रखी है मेरी गुमराही ही,
मैं भटकूं तो भटक कर भी उसी तक पहुंचूं।
कहां कतरे की गमख्वारी करे है,
समंदर है अदाकारी करे है।
कोई माने या न माने उसकी मर्जी,
मगर वो हुक्म तो जारी करे है।
नहीं लम्हा भी जिसकी दस्तरस में,
वही सदियों की तैयारी करे है।
बुलावा आएगा चल देंगे हम भी,
सफर की कौन तैयारी करे है।
(दस्तरस= वश में)
कौन सी बात कहां कैसे कही जाती है,
ये सलीका हो तो हर बात सुनी जाती है।
एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने,
कैसे मां-बाप के होठों से हंसी जाती है।
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