Saturday, November 28, 2009

...हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएंगे


दुष्यंत कुमार की गजलें बहुत कुछ सोचने को विवश करती हैं। नई दिल्ली से प्रकाशित एक राष्ट्रीय दैनिक में शुक्रवार को प्रकाशित उनकी गजल मुझे तो काफी अच्छी लगी, शायद आपको भी भाए। डालिए एक नजर......

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे,
इस बूढ़े पीपल की छाया में सुस्ताने आएंगे।

हौले-हौले पांव हिलाओ जल सोया है छेड़ो मत,
हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आएंगे।

फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम,
अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आएंगे।

मेले में भटके होते होते तो कोई घर पहुंचा जाता,
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएंगे।

हम क्यों बोलें इस आंधी में कई घरौंदे टूट गए,
इन असफल निरमितियों के शव कल पहचाने जाएंगे।

हम इतिहास नहीं रच पाए इस पीड़ा में दहते हैं,
अब जो धाराएं पकड़ेंगे इसी मुहाने आएंगे।

4 comments:

Udan Tashtari said...

दुष्यन्त कुमार जी गज़लों के तो क्या कहने!!

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर। शुक्रिया इसे पढ़वाने के लिये। वर्ड वेरीफ़िकेशन हटा लें भाई!

निर्मला कपिला said...

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे,
इस बूढ़े पीपल की छाया में सुस्ताने आएंगे।
पूरी गज़ल लाजवाब है । धन्यवाद इसे पढवाने के लिये

स्वप्नदर्शी said...

nice