Thursday, October 19, 2017

और फिर उभर आया वह दर्द


सर्दी का मौसम था। दिसंबर का महीना। शाम को एक अजीज दोस्त से मिलने उसके घर गया था। अंदर बरामदे में अलाव के पास बैठक र बतकही शुरू हुई तो कब नौ बज गए, पता ही नहीं चला। मैं बातूनी तो हूं ही, मेरी ही किसी बात पर दोस्त की पत्नी ठठाकर हंस पड़ी। इस पर दोस्त के बड़े भाई की आवाज गूंज उठी-लाज-लिहाज बिल्कुल ही भूल गई। हमारे घर में यह सब नहीं चलेगा। दोस्त की पत्नी पर क्या बीती, उसकी तो क्या कहूं, लेकिन मुझे लगा जैसे मेरी नंगी पीठ पर अनगिनत कोड़े बरसा दिए गए हों। हठात उठकर आना सही नहीं होता, सो मैंने बात की दिशा बदल दी और फिर चर्चा को विराम देकर वहां से निकल आया। मेरा दोस्त मेरी पीड़ा को समझ चुका था और वह मुझे छोड़ने काफी दूर तक आया और काफी देर तक समझाता रहा कि मैं भैया की बात का बुरा न मानूं। औपचारिकतावश मैंने कह तो दिया कि बुरा क्यों मानूंगा, लेकिन दिल पर पड़े फफोड़े दिमाग को चेतनाशून्य किए हुए थे। घर आकर मां को कह दिया कि दोस्त के यहां से खाकर आया हूं और सोने चला गया। दिमाग में विचारों की धमाचौकड़ी मची थी, ऐसे में नींद कहां आती ? हां, थोड़ी ही देर में बिजली आ गई और मैं साहित्यिक पत्रिका पलटने लगा। चित्त तो अस्थिर था ही, एक कहानी में छपे रेखाचित्र पर निगाहें चिपक गईं और कहानी पढ़ने लगा। उस कहानी को पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे मेरे साथ अभी-अभी हुई घटना दुहराई जा रही हो। समाज में महिलाओं की दशा पर सोचते-सोचते न जाने कब नींद आ गई... अभी हाल ही मनीषा जी Manisha Kulshreshtha की पंचकन्या पढ़ते हुए जब यह पंक्ति पढ़ी --एक स्त्री को उतना ही हंसना चाहिए, जितना कि रोना वह संभाल सके... तो स्मृति पटल पर पूरा दृश्य एक बार फिर घूम गया और वर्षों पुराना दर्द एक बार फिर से टीस मारने लगा... 13 July 2017

सावन के बहाने ...


मर्द’ फिल्म में अमिताभ बच्चन का डायलॉग ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ भले ही लोगों की जुबान पर चढ़ गया हो, लेकिन भावनाओं की कसौटी पर परखें तो यह सही प्रतीत नहीं होता। पुरुष के सीने में भी एक दिल होता है और उसकी धड़कन पर प्रेम, दया, करुणा, विरह जैसी भावनाओं का असर कुछ कम नहीं होता। तभी तो महाकवि कालिदास ने ‘मेघदूतम्’ रचकर विरह की ज्वाला में जल रहे यक्ष की पीड़ा को अमर कर दिया। यही नहीं, गोस्वामी तुलसीदास को भी सीता की विरह में जंगल-जंगल भटक रहे श्रीराम की सर्वाधिक पीड़ा का अहसास वर्षा ऋतु में ही हुआ और उन्होंने लिखा- ‘ घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥ ’ यह दीगर बात है कि न तो कालिदास ने विरह की ज्वाला में जल रही यक्षिणी की पीड़ा को शब्द दिए और न ही तुलसी बाबा सीता मैया की ऐसी व्यथा को रामचरितमानस में शब्द दे पाए। संभव है, यक्षिणी और सीता मैया की पीड़ा शब्दों में समेटे जाने लायक न रही हो। खैर, मनोभावनाएं हैं, इनका विस्तार कहां किस सीमा तक होगा, इसकी लकीर खींचना संभव भी नहीं है। आज भी अनगिनत प्राणी विभिन्न कारणों से अपने प्रियजनों से दूर रहने को विवश हैं। इस स्थिति में बदलाव की गुंजाइश भी नहीं है, लेकिन शादी के करीब दो दशक तक साथ रहने के बाद पिछले पांच-छह महीने से पत्नी और बच्चों से करीब हजार किलोमीटर दूर रहने को विवश मित्र से हुई बातचीत के बाद शब्दों का सोता कुछ यूं फूट निकला... 16 July 2017

हिन्दी का हाल


आज हिन्दी की हालत जियो के सिम की तरह हो गई है। राजनेता और अभिनेता हिन्दी के सहारे अपनी जिंदगी संवारते हैं, लेकिन उसके बाद इसे पूरी तरह भूल जाते हैं । कुछ वैसे ही जैसे आजकल लोग जियो नंबर से फोर जी इंटरनेट और मुफ्त कॉलिंग का मजा तो लेते हैं, लेकिन नंबर पूछने पर बगलें झांकने लगते हैं। # हिन्दी दिवस

Friday, September 1, 2017

फणीश्वरनाथ के साथ यूं जुड़ा रेणु

मेरा उपनाम सौभाग्य या दुर्भाग्यवश मेरा घराऊ नाम भी है । जन्मते ही घर में ऋण हुआ, इसलिए दादी प्यार से रिनुवां कहने लगीं। रिनुवां से रुनु और अंतत: " रेणु " । जब तुकबंदी करने लगा, तब छंद के अंत में अनायास ही - " कवि रेणु कहे कब रैन कटे, तमतोम घटे ..." जुड़ गया । और उपनाम की प्रेरणा लेखकों को शायद सहस्रनामधारी विष्णु महाराज से ही मिली होगी । - फणीश्वरनाथ रेणु ( वर्षों पहले कादम्बिनी में) 19 July 2017

प्रेमचंद आज मिले पार्क में

आज मॉर्निंग वॉक पर गया तो लंबे-चौड़े अरविन्दो पार्क के ट्रैक पर कदमताल कर रहे अलग- अलग उम्र वर्ग के पुरुष-महिलाएं अपनी-अपनी बातें शेयर करने में लगे थे। 60-65 वर्ष आयुवर्ग के पांच सज्जन मेरे आगे चल रहे थे। उनकी बातचीत सुनकर मैंने अपनी रफ्तार थोड़ी कम कर दी। उनमें से एक सज्जन अपने साथियों को मुंशी प्रेमचंद की कहानी " बाबाजी का भोग" सुना रहे थे। वे बता रहे थे कि परंपराओं का पालन करते हुए खुद भूखे रहकर दरवाजे पर आए साधु की आवभगत करता है । दरअसल कल मुंशी प्रेमचंद की जयंती थी और एक दैनिक समाचार पत्र ने साप्ताहिक रविवारीय परिशिष्ट में यह मशहूर कहानी छापी थी। इसे लोगों की बातचीत के विषय में शामिल होने से दिल को काफी सुकून मिला। लगा कि साहित्य के प्रति समाज आज भी संवेदनशील है। और सबसे बड़ी बात कि उपनिषद-पुराणों में वर्णित आख्यानों की तरह जब कोई रचना समाज में जनसामान्य के संवाद के दौरान दृष्टांत की तरह पेश की जाने लगे तो वह रचनाकार भी अमर हो जाता है । परम श्रद्धेय प्रेमचंद भी इसी श्रेणी के रचनाकार हैं। उन्हें कोटि- कोटि नमन... 01 August 2017