Sunday, March 16, 2008

जागो श्रोता जागो-एक

विश्व उपभोक्ता दिवस की पूर्व संध्या पर शुक्रवार को राजस्थान के खाद्य, नागरिक आपूर्ति और उपभोक्ता मामलों के विभाग ने बिड़ला सभागार में राष्ट्रीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया। इसमें कई कवियों ने सार्थक संदेश देने का सफल प्रयास किया। तो बिना किसी भूमिका के उठाइए इन काव्य पंक्तियों का आनंद ----
सर्वप्रथम भोपाल से आईं डॉ. अनु सपन ने सरस्वती वंदना से कवि सम्मेलन की शुरुआत की। कवि सम्मेलन के संचालक शैलेष लोढ़ा ने विभागीय अधिकारी शिवदत्त पालीवाल को बुलाया, जिन्होंने कार्यक्रम की सार्थकता बनाए रखने के लिए काव्य के जरिये उपभोक्ता संरक्षण का संदेश दिया। इसके बाद जयपुर के अब्दुल अयूब गौरी ने रामसेतु पर विवाद और भगवान श्रीराम के अस्तित्व पर सवाल उठाने वालों को ललकारा-
`राम के वजूद पे जो लगा रहे प्रश्नचिह्न
उनके मरने पर न राम नाम सत्य हो।´
इसके बाद भोपाल से आए नसीर परवाज ने अंधेरों के बीच उजाले की उम्मीद कुछ इस तरह जगाई-
बुझ गया है चांद तो सूरज निकलना चाहिए,
मैं जहां जाऊं उजाला साथ चलना चाहिए।
राह का पत्थर उठा तो लूं मगर ये शर्त है,
उसकों हाथों की हरारत से पिघलना चाहिए।
हालांकि उनके आक्रोश का तेवर भी छिपा नहीं रह सका
कम से कम लोगों को मेरे गम का अंदाजा तो हो,
मेरे घर के साथ सारा शहर जलना चाहिए।
खत्म हो जाए जहां मेरी सदाकत का सफर,
उससे आगे फिर मेरे बच्चों को चलना चाहिए।
कुछ जरूरी तो नहीं ताउम्र वो अच्छा लगे,
दिल बदल जाए तो चेहरा भी बदलना चाहिए।
कोई मजबूरी भी हो लेकिन खिलौनों के लिए,
हर घड़ी मासूम बच्चों को मचलना चाहिए।
बैठकर संजीदगी से गौर करना है हमें,
जिंदगी को किस नए सांचे में ढलना चाहिए।
इनके बाद हाड़ौती के कवि दुरगादानसिंह गौड़ ने राजस्थानी भाषा में शृंगार की कविताओं से श्रोताओं को भाव विभोर कर दिया। फिर सुरेंद्र सुकुमार ने छोटी-छोटी क्षणिकाओं के बाद अपनी प्रसिद्ध रचना `रैट कमीशन´ से वर्तमान राजनीति में व्याप्त विद्रूपताओं का बड़ा ही सटीक चित्रण किया।
मंचासीन इकलौती कवयित्री भोपाल से आईं डॉ. अनु सपन ने प्रेम-प्रीत की बात कुछ इस अंदाज में की-
देखो कितने सितार बजते हैं, सारे नगमे निगार बजते हैं।
जब से तुमने मुझे निहारा है, मुझमें घुंघरू हजार बजते हैं।
आप से दूर रह नहीं पाते, अब ये तन्हाई सह नहीं पाते।
मेरी पलकों को आप पढ़ लेना, होठ कायर हैं कह नहीं पाते।
सबको देते नजीर देखे हैं, हमने हरदम अधीर देखे हैं।
प्रेम के मानी तक नहीं आते, खुद को कहते कबीर देखे हैं।
प्रीत का छंद पा लिया हमने, मन का आनंद पा लिया हमने।
आपके बोल पढ़ लिए जबसे, गीत गोविंद गा लिया हमने।
याद जब-जब तुम्हारी आती है, आंख एक छंद गुनगुनाती है।
रात पढ़ती है प्रेम के दोहे, धूप चौपाइयां सुनाती है।
और इसके बाद विरह की वेदना और मोहब्बत की रीत ने इन शब्दों का सहारे श्रोताओं के çदल में उतरने की कोशिश की-
जलती है शमां जैसे तिल-तिल पिघल-पिघल के,
काटी है रात हमने करवट बदल-बदल के।
पग-पग पर इस सफर में बरसेंगे तुझपे पत्थर,
ये प्यार की डगर है चलना संभल-संभल के।
किसको मैं समझूं अपना किसको कहूं पराया,
मिलते हैं दोस्त भी अब चेहरे बदल-बदल के।
आया खिलौने वाला मजबूर बाप रोया,
उंगली छुड़ा रहे थे बच्चे मचल-मचल के।
कुछ दूर साथ चलके हम इस तरह से बिछड़े,
रह जाएं जो अधूरे मिसरे किसी गजल के।
और इसके बाद हुस्न ने मजनू छाप आशिकों से औरत की असली परिभाषा कुछ यूं दी-
इस तरह से मुझे आप मत देखिए, भाव सूची नहीं हूं मैं बाजार की।
मेरी हर सांस में एक उपन्यास है, कोई कतरन नहीं हूं मैं अखबार की।
सिर्फ चेहरा ही सब देखते हैं यहां, नापते हैं कहां मन की गहराइयां।
रूप रस के ये लोभी नहीं जानते, मन में बसती है मानस की चौपाइयां।
मूर्तियां पूजना मेरी फितरत नहीं, मैं पुजारिन पसीने के किरदार की।
मैं कुहासे में लिपटी हुई भोर हूं, कोई सूरज मिले मैं भी खिल जाऊंगी।
हूं नदी भावना की उमड़ती हुई, एक çदन अपने सागर से मिल जाऊंगी।
प्यार मैंने किया पूरे मन से किया, फिक्र मुझको नहीं जीत की हार की।
देवियों की तरह जिनको पूजा गया, या सभाओं में जिनको नचाया गया।
एक औरत को और न समझा गया, इक शमां की तरह से जलाया गया।
मैं धरा हूं धरम है सहन शीलता, कोई वस्तु नहीं हूं मैं व्यापार की।
और इसके बाद जयपुर के ही वीर रस के कवि अब्दुल गफ्पार ने अपने बदले हुए तेवर में पाकिस्तान को ललकारने की बजाय देश में ही देशवासियों के बीच जहर घोलने वाले राज ठाकरे को कड़े शब्दों में चुनौती दी कि भारत एक है और सबका है।
दो कवि और शेष हैं इस कवि सम्मेलन के और दोनों ही विशेष हैं, लेकिन इनकी काव्यरचना के रसास्वादन के लिए कीजिए थोड़ा और इंतजार।

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