Monday, March 17, 2008

जागो श्रोता जागो-दो

विश्व उपभोक्ता दिवस की पूर्व संध्या पर जयपुर के बिड़ला सभागार में आयोजित राष्ट्रीय कवि सम्मेलन को डॉ. कुंअर बेचैन ने नई ऊंचाइयां बख्शीं :
हालांकि ये पंक्तियां पहले भी सुनी होंगी आपने, फिर भी प्रस्तुत हैं-
ये सोच के मैं उम्र की ऊंचाइयां चढ़ा,
शायद यहां, शायद यहां, शायद यहां है तू
पिछले कई जन्मों से तुझे ढूंढ़ रहा हूं,
जाने कहां, जाने कहां, जाने कहां है तू।
आज के दौर में जब मित्रता भी स्वार्थ के वशीभूत की जा रही है,
डॉ. बेचैन ने सच्ची मित्रता की तमन्ना इन शब्दों में व्यक्त की -
पूरी धरा भी साथ दे तो और बात है,
पर तू जरा भी साथ दे तो और बात है।
चलने को तो एक पांव से भी चल रहे हैं लोग,
पर दूसरा भी साथ दे तो और बात है।
और फिर होली पर उनके तेवर कुछ यूं थे -
गमों की आंच पे आंसू उबालकर देखो,
बनेंगे रंग किसी पर भी डालकर देखो।
तुम्हारे çदल की चुभन भी जरूर कम होगी,
किसी के पांव का कांटा निकालकर देखो।
वो जिसमें लौ है विरोधों में और चमकेगा,
किसी दीये पे अंधेरा उछालकर देखो।
और अंत में उन्होंने प्रेम और परिश्रम के महत्व को इस तरह प्रतिपादित किया-
सूखी मिट्टी से कोई भी मूरत न कभी बन पाएगी,
जब हवा चलेगी ये मिट्टी खुद अपनी धूल उड़ाएगी।
इसलिए सजल बादल बनकर बौछार के छींटे देता चल,
यह दुनिया सूखी मिट्टी है तू प्यार के छींटे देता चल।
यह पूरी कविता इतनी तरन्नुम में बह चली कि उसे लिखना संभव नहीं हो सका, कभी उपलब्ध हो पाएगी, तो आपकी सेवा में प्रस्तुत करूंगा।
और फिर आए डॉ. वसीम बरेलवी, जिन्होंने जिन्दगी के फलसफे को शेरों में पिरोकर जब पेश किया तो श्रोता मंत्रमुग्ध से हो गए:
गरीब लहरों पे पहरे बिठाए जाते हैं,
समंदरों की तलाशी कोई नहीं लेता।
वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से,
मैं एतवार न करता तो और क्या करता।
हम ये तो नहीं कहते कि हम तुझसे बड़े हैं,
लेकिन ये बहुत है कि तेरे साथ तेरे साथ खड़े हैं।
अल्लाह मेरा बाग उजड़ने से बचाना,
कुछ फूल भी कांटों की हिमायत में खड़े हैं।
देते हैं वही फैसले तूफानों के रुख पर,
जो एक जमाने से किनारों पे खड़े हैं।
छोटी-छोटी बातें करके बड़े कहा हो जाओगे,
पतली गलियों से निकलो तो खुली सड़क पर आओगे।
मुझको गुनाहकार कहे और सजा न दे,
इतना भी इख्तियार किसी को खुदा न दे।
तखातुब में जो मेरे नाम का एलान हो जाए,
तुम्हारा क्या बिगड़ता है मेरी पहचान हो जाए।
किसी से कोई भी उम्मीद रखना छोड़कर देखो,
तो ये रिश्ते निभाना किस कदर आसान हो जाए।
शाम तक सुबह की नजरों से उतर जाते हैं,
इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं।

जब्र का जहर कुछ भी हो पीता नहीं,
मैं जमाने की शरतों पर जीता नहीं।
देखे जाते नहीं मुझसे हारे हुए,
इसलिए मैं कोई जंग जीता नहीं।
कौन सी बात कहां कैसे कही जाती है,
ये सलीका हो तो हर बात सुनी जाती है।
एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने,
कैसे मां-बाप के होठों से हंसी जाती है।
साये तक की खुद्दारी को डॉ. वसीम ने बखूबी जुबां दिया :
रोशनी से हैं दामन बचाए,
कितने खुद्दार होते हैं साये।

जो सबपे बोझ था एक शाम जब नहीं लौटा,
उसी परिंदे का शाखों को इंतजार रहा।
उसूलों पर जहां आंच आए टकराना जरूरी है,
जो जिंदा हो तो जिंदा नजर आना जरूरी है।
नई उमरों की खुदमुख्तारियों को कौन समझाए,
कहां से बचके चलना है कहां जाना जरूरी है।
थके हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें,
सलीकामंद शाखों का लचक जाना जरूरी है।
मेरे होठों पर अपनी प्यास रख दो फिर सोचो,
कि इसके बाद भी इस दुनिया में कुछ पाना जरूरी है।
सलीका ही नहीं शायद उसे महसूस करने का,
जो कहता है खुदा है तो नजर आना जरूरी है।
बहुत बेबाक आंखों में ताल्लुक टिक नहीं पाता,
मोहब्बत में कशिश रखने को शरमाना जरूरी है।

और फिर स्वाभिमानियों के लिए उन्होंने कुछ यूं फरमाया-
क्या दुख है समंदर को बता भी नहीं सकता,
आंसू की तरह आंख तक आ भी नहीं सकताष
तू छोड़ रहा है तो खता इसमें तेरी क्या,
हर शख्स मेरा साथ निभा भी नहीं सकता।
प्यासे रहे जाते हैं जमाने के सवालात,
किसके लिए जिंदा हूं बता भी नहीं सकता।
घर ढूंढ रहे हैं मेरा रातों के पुजारी,
मैं हूं कि चिरागों को बुझा भी नहीं सकता।
वैसे तो एक आंसू ही बहाकर मुझे ले जाए,
ऐसे कोई तूफान हिला भी नहीं सकता।
डॉ. वसीम बरेलवी ने तरन्नुम में भी कुछ सुनाया, वह रचना और कभी। तब तक के लिए शुभकामनाएं।

No comments: