Thursday, October 13, 2011

जब समंदर हो न पाई तो बहुत रोई नदी...

मानव मन की गति की थाह आज तक कोई नहीं पा सका है। कवियों ने मन की तुलना अपनी-अपनी कल्पना के आधार पर की है। सहारनपुर की वरिष्ठ कवयित्री इंदिरा गौड़ ने 8 अक्टूबर की रात धवल चांदनी के साये में आयोजित 'गीत चांदनीÓ में मन की तुलना नदी से करते हुए जब यह काव्य रचना सुनाई तो हर श्रोता इस काव्य रचना की भाव रूपी नदी में खुद को बहने से नहीं रोक पाया।
आप भी लीजिए इस मधुर रचना का आनंद....


बह रही मुझमें निरंतर सोच की कोई नदी,
घाट सोए, कूल सोए, पर नहीं सोई नदी।
बह रही मुझमें निरंतर...

एक तट है दूर कितना दूसरे तटबंध से,
साथ चलते हैं बंधे शायद किसी अनुबंध से,
क्या पता किसने तटों के बीच में बोई नदी।
बह रही मुझमें निरंतर...

आचमन जब-जब किया, कुछ रत्न आए हाथ में,
दे गई हर लहर मुझको गीत कुछ सौगात में,
जब कभी मैली हुई तो आंख ने धोई नदी।
बह रही मुझमें निरंतर...

अनवरत जल के परस से रेत हो जाती शिला,
साधना से टूट जाती दर्प की हर शृंखला,
जब समंदर हो न पाई तो बहुत रोई नदी।
बह रही मुझमें निरंतर....

1 comment:

विष्णु बैरागी said...

अच्‍छी कविता पढवाने के लिए आभार।

कृपया वर्ड वेरीफिकेशन का प्रावधान हटाऍं।