Monday, October 31, 2011

...बहक रहे हैं सभी कदम

गीतकार बनज कुमार बनज का यह मधुर गीत जयपुर से प्रकाशित हिंदी दैनिक समाचार पत्र डेली न्यू•ा के 30 अक्टूबर को प्रकाशित रविवारीय परिशिष्ट हमलोग में छपा है। आप भी यह गीत गुनगुनाइए....

...बहक रहे हैं सभी कदम

किसी के ज्यादा किसी के कम, बहक रहे हैं सभी कदम।
दीपक क्या जुगनू भी पाले सूरज होने का इक भ्रम।

उजियारा घबराता है, अंधियारा इतराता है।
चंदा क्या सूरज को भी, यहां ग्रहण लग जाता है।
तन की कविता सुगम हुई है, मन के गीत हुए दुर्गम।
किसी के ज्यादा किसी के कम, बहक रहे हैं सभी कदम।

माया नाच नचाती है शासन को धमकाती है।
धूप मिली हमको ऐसी शाम निगलती जाती है।
बाज़ारों तक जा पहुंचे है धीरे-धीरे सभी धरम।
किसी के ज्यादा किसी के कम,बहक रहे हैं सभी कदम।

मौसम हमको चकित करे और हवाएं भ्रमित करें
जन गण मन की खुद्दारी नित सत्ता को नमन करे।
कहां ढूंढने जाऊं अब में, कहां मिलेगी लाज शरम।
किसी के ज्यादा किसी के कम, बहक रहे हैं सभी कदम।

सुविधाओं के जंगल में खिले हुए चेहरे देखे।
मतलब की सुनने वाले हमने तो बहरे देखे।
किसके लिए चले थे यारो ,और कहां पर आये हम।
किसी के ज्यादा किसी के कम, बहक रहे हैं सभी कदम।

भागे भागे शहर मिले, और ठहरते गांव मिले।
जकड़े हुए स्वयं को ही, खुद के फेंके दांव मिले।
दीपक चाट रही कर्मों को, फिर भी कहते सफल जनम।
किसी के ज्यादा किसी के कम ,बहक रहे हैं सभी कदम।

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