Sunday, January 6, 2008

इसलिए-खेत-ने मार लिया मैदान

इसलिए-खेत-ने मार लिया मैदान
किन कारणों से किसान को धरतीपुत्र कहा जाता है। माटी से मोह किसे कहते हैं। धरती छिनने पर नंदीग्राम में संग्राम के बीज कहां छिपे होते हैं, सब कुछ छूट जाने के बाद भी आदमी अपना ठीया-ठौर क्यों नहीं छोड़ना चाहता है, सवॅसंपन्न बेटे-बहू के साथ रहने की बजाय एक वृद्ध अपने अंतिम दिन अपने गांव में सारी परेशानियों को अकेले भोगना ही क्यों श्रेयस्कर समझता है। गोस्वामी तुलसीदास की चौपाई ०जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई० को चरिताथॅ करता हुआ संपन्न आदमी और पाने की चाहत में किस तरह विपन्नों से भी विपन्न कैसे बन जाता है, ऐसे बहुत सारे अनुत्तरित प्रश्नों के समाधान खोजने की भरपूर कोशिश की गई है, रत्न कुमार सांभरिया की इस कहानी -खेत-में। छोटे-छोटे वाक्यों में कहानी इस कुशलता से बुनी गई है कि कहना ही क्या। मैं अबोध तो भला कैसे सुना सकता हूं इस पुरस्कृत कहानी की रामकहानी, आप प्रबुद्ध हैं, खुद ही पढ़कर देख लीजिए।

खेत

बूढ़ा के लिए खेत था। सोलह आना सच यह था कि वह दो सौ वगॅ गज का प्लॉट था, उसके पचीस-पचीस फीट के आठ क्यार बने हुए थे। क्यार-क्यार न्यारी फसल उगी थी। चना, जौ, गेहूं, गाजर, पालक, धनिया, मेथी। आठवें क्यार में बूढ़ा की झोपड़ी थी। प्लॉट के तीनों ओर बिल्डिंगें बनी हुई थीं। सामने तीस फीट की सड़क थी। हवा पानी दोनों इसी राह आते थे, बूढ़ा के लिए। गेट के नाम पर बबूल की छाजन का फाटक था। आड़, चाहे बाड़ हो।
प्लॉट के लिए आए दिन खरीददार आते। बढ़-चढ़कर मोल-भाव करते। बूढ़ा से जिदयाते-बाबा, अकेले जीव हो। बावली बात छोड़ो। दाम बोलो। दाम पकड़ो। बूढ़ा खुद्दार। बूढ़ा जज्बाती। बूढ़ा खानदानी। बेलाग कहता-शरीर का सौदा साई, होवे छै कांई। बूढ़ा ७४ वषॅ की अपनी अवस्था को गिनता गामता तक न था। वह अपने क्यारों में निराई करता। खोदी करता। पानी बलाता। खुद अपनी रोटी-पानी करता। रात हुई। झोपड़ी में बिछी खाट पर लेट जाता। रात गहराने लगती। बूढ़ा अतीत की स्मृतियों में गुम होने लगता। अतीत और आज, दो ध्रुवों की तरह थे। आकाश, चांद-सितारों को नापता बूढ़ा अपनी झोल खाट पर गोल हुआ सो जाता, आसमान में परवाज भरने वाला पंछी अपने घोंसले में पंख समेट कर बैठता है।
एक दिन बूढ़ा उठा। शरीर अकड़ा था। बूढ़ा को बुखार जकड़ा था। लाइन के दूसरी ओर बूढ़ा की दादालाई थी। वहां खबर कराई गई। बूढ़ा के कुटुंब के लोग। बूढ़ा की सेवा-सुश्रूषा की। दवा-दारू हुई। बूढ़ा को सीख दी गई-
०बाबा, बीमारी बुढ़ापा की बैरन होती है। सांस रोकती है। सांस ही शरीर की गाड़ी है। सांस थमी, देह माटी हुई। तुम्हारे बेटे को फोन कर देते हैं, साथ चले जाना उसके।०
बूढ़ा कोहनी तक हाथ जोड़, मुआफी सी मांगते ना कह देता। बूढ़ा और बालक की चाम नाजुक होवे छै। हवा, पानी जल्दी लाग जावै। कभी साज, कभी नासाज। किसट तो माकी काया भोगेली।
एक हवा उड़ी। हवा गली-गली दस्तक देती गई कि बूढ़ा का जी उठ खड़ा हुआ है। वह प्लॉट बेचकर अपने बेटे के पास जाएगा। देखें, किसके जोग हैं। हवा में रंगत आ गई। बीमार बूढ़ा के पास आने वालों का तांता लगा रहता। मरणासन्न कीट को कीरियां घेर लेती हैं। जिनका कोसों खोज नहीं था, वे तन के लत्ते से बूढ़ा के करीबी हो गए थे। खैरियत जानना जरिया रहा, साध बूढ़ा का खेत थी। बगुला इधर-उधर गदॅन घुमाए, टकटकी मछली पर होती है। दवा का असर होता गया। बूढ़ा बीमारी से उबरता गया। बूढ़ा ने बड़ों का सुना-गुणा। खाट पर अच्छा भला बीमार हो जाता है। डोलते-फिरते से पांव मोकले होते हैं। देह खुलती है।
उसने चादर की बुक्कल मारी। साफा बांधा। जूतियां पहनीं। बूढ़ा ने लाठी नहीं पकड़ी थी, अभी। लाठी निकाल ली थी, झोंपड़ी से। शरीर कांपता-हांफता है। सरसरी है। माथा घूमता है। लाठी सहारा देगी। बूढ़ा ने फाटक भिड़ाया और सड़क पर उतर गया था। भारी-भरकम सा एक हाथ बूढ़ा के कंधे पर गिरा। बूढ़ा चौंका। बूढ़ा ठिठका। छोहभरा बूढ़ा पीछे मुड़ा। चौथी गलती में रहने वाला पंजाबी था। उसकी वय पचपन से टपी न होगी। सिर, भौंहें और हाथ-पैर पर सफेदी उतर आई थी। बूढ़ा ने मूंछों ढंके होंठ बुदबुदाए कि वह खुद बोल पड़ा था-०बुड्ढे बाबा पवनदास पंजाबी हां असी। चौथी गली विच रहंदे हां, उत्थो ही दुकान हन, साढ़ी।०
चप्पा-चप्पा बूढ़ा के पांव चस्पा था। किशोर केरसिंह, आज जग की जुबान०बूढा०है। वह और उसके जोड़ीदार कबड्डी खेला करते थे, वहां।
०बोल कांई छै? ० बूढ़ा के कंठ तुरशी थी।
०प्लॉट दा कि मांगदे हां, तुसी?०
०घर का गूदड़ा।०
०हूं, दसो-दसो।०
बीमारी में क्रोध, बारूद में तीली। बूढ़ा ने संयम बरता-०कह दी ना ना बेचूं।० बूढ़ा की ना में दुत्कार भी थी, फटकार भी थी। बूढ़ा का जी आगे तक टहल कर लौटने का था। कॉलोनी में कहां क्या नया हुआ है, देखने की उसकी जिज्ञासा थी। वह अपनी खाट पर आ लेटा था। मुट्ठी में दबी रेत का कण-कण निकालता है। खूड़-खूड़ हाथ से निकल जाने की व्यथा बूढ़े को मथने लगी। बूढ़ा की खतौनी आठ खेत थे। सौ बीघा जमीन थी, पक्की। तीन बरस अकाल पड़ा। बीस बीघा जमीन बेच दी, चारे के मोल। खुद खाया। पशुओं को खिलाया। बेटे की कोचिंग। बेटे का लगातार बाहर जाकर पढ़ना, बेटे का यादगार ब्याह। पत्नी का झेरे में गिरकर मरना। पुलिस का बाज बन जाना। पत्नी का मौसर। अड़ी हुई, जमीन निकाल दी, मानो जमीन नहीं, गुल्लक के पैसे हों।
अंतरवेदना लहरों सी हिलोरों सी उठती। बूढ़ा खुद को सांत्वना देता। अपने पूवॅजों को मानों ढांढ़स बंधाता-०सब कुछ बेचकर भी कुछ गंवाया नहीं है मैंने। अपने पास जो टुकड़ा है, उसका रोकड़ा, उस सगली जमीन से घना है, आज०। बूढ़ा आकाश में खिले तारों की तरह खिलखिलाता, उसके खेतों पर शहर बस रहा है।
एक घटना ने उसे उद्वेलित किया। एक खेत बंजर पड़ा था। झांड़-झंखाड़ उगा था। कीकर, बबूल खड़ी थी। लोमड़, सियार, भेड़िया जैसे डरावने जानवर खोंखियाया हुंकियाया करते थे। आज एक बड़ा स्कूल खड़ा हो गया है वहां। सेठ, साहकार, रईसों, शहजादों के बालक मोटर में बैठकर पढ़ने आते हैं, दूर-दूर से। स्कूल टकटकाता बूढ़ा अवचेतन में चला गया था। वह भीतर जाकर उस खोह को देखना चाहता था, जहां भेड़िए के मुंह पर लाठी मारकर उसने लहूलुहान बकरी को छुड़ाया था। जुनूनी बूढ़ा आगे बढ़ा। गेट पर बैठी चपड़ासन ने डंडा ठठकार दिया था-०ताऊ किस जागा? छोरा-छोरी पढ़ै से के थारा इस स्कूल में?०
बूढ़ा का अंतस तनतनाया-०कह दूं। मुंह को लगाम दे बाई। किसका खेत है, बैठी चाकरी करती है तू०। बूढ़ा का मन कभी उन खेतों में, तो कभी उन पर उगे कंकरीट के जंगल में विचरण कर रहा था कि प्लास्टिक के पाइप से पानी कूदने लगा था, गल्ल। फुरॅ फुरॅ। गल्ल गल्ल। हवा और पानी भरा पाइप कुचले सांप की तरह छटपटा रहा था।
तबियत बहाल होते ही बाल का मन खेल खिलौनों में लग जाता है, बूढ़ा अपने क्यार में जा खड़ा हुआ था। कुरते की बांह संगवाए था, कुहनी तक। धोती के खूंट अडूंसे थे, घुटनों तक। रूमाल उतारकर एक ओर रखा था। हाथ में खुरपी थी। नंगे पैर थे, सिंचते खेत जूती चप्पलें नहीं चलतीं।
०बाबा। बूढ़ा बाबा। बाबा साहब। ओ बाबा। ०
बूढ़ा के उम्र पके कान ऊंचा सुनते थे। बीमारी के बाद और क्षीण हो गए थे। बूढ़ा के भोथरा कानों से शब्द टकराए। उसने खुरपी वाले हाथ को जमीन में रोप सा दिया था, जैसे। दूसरा हाथ गोड़े पर रखा और उठ खड़ा हुआ। बूढ़ा बैल थान से उठा हो, थूथन जमीन पर टिका कर देखा। चश्मे के भीतर आंखें छपछपाईं। सधाईं। बूढ़ा को गुस्सा आया। उसकी खाट पर आ बैठा कौन बेशऊर है। उसने चश्मे की दोनों डंडी कानों पर ठीक की। निगाह बांधी। खाट पर बैठे शख्स को पहचान लिया था। वही वकील जी, जो बूढ़ा की बीमारी के टेम आए थे, बूढ़ा की खाट पर बैठकर उसका बुखार देखा था। आत्मीयता से बतियाते थे। बाप का नाम जाना था। खेत की नाप पूछी थी। वकील ने बूढ़ा की ओर देखा। उसके गीले पैर जमीन छपते आए थे। खुरपी वाले हाथ से रेत मिट्टी टपक रहे ते। उन्होंने बूढ़ा को नमस्कार कर पूछा-०बाबा अब तबियत कैसी है, आपकी? ० हिदायत दी-०पानी में मत रहो, आराम करो।०
झबरीली मूंछों के भीतर बूढ़ा मुसकराया-०जीते जी आराम कांई वकील जी०। बूढ़ा के नेत्रों में विभोर उतर आया था। बूढ़ा यानी केरसिंह मोटियार था। भौंरे के रंग जैसी स्याह मूंछों के ताव चढ़े छोर बैलों के सींगों की तरह आसमान देखा करते, उमरदराज भैंसे के माथे पर लुढ़के सींगों की भांति उसकी धोली मूंछें ठोढ़ी पर पड़ी थी। बूढ़ा का गीली मिट्टी और पानी भरा हाथ मूंछों पर आ बैठी मक्खी को उड़ाने लगा था। गंदलाई एक बूंद मूंछों के बालों से रिपसती छोर पर थिर गई थी। वकील हंसे।
उन्होंने बूढ़ा को विश्वास में लिया-०बाबा साहब, साठ फीट के रोड पर जो ट्रांसफामॅर है ना, उसके दो प्लॉट आगे इमली का पेड़ है एक, उसी से दूसरा प्लॉट है, मेरा। ०
०दूसरो या तीसरो?०
०तीसरा नहीं दूसरा बाबा। ०
०जको आगे अबार बनो छौ, अब बुच लाग्योड़ी छै?०
०तांत्रिक हो बाबा।०
बूढ़ा बोला-०वकील जी वैंडे हमने अपनो बैल दबायो छो, बीस बोरी नमक मेल। ०
बूढ़ा के कंपकंपाते होंठों के साथ मूंछें भी कांप गई थीं। वकील का, जी सा निकल गया था। मुंह खुला का खुला रह गया था, बया-सा। अंडरग्राउंड खोदते पशु कंकाल की बात अंदर रख ली थी। कहता, वह पेड़ उसने अपने हाथों लगाया था, ऐन आजादी के दिन। वहां झाड़ियां थीं। बोर थे। बुरट थे। निकलो, कपड़ों पर चिपक जाते थे, बुरी तरह। खेत की डोल-डोल निकलते थे।
बुढ़ा को गुमदाया देख, वकील ने यकीन दिलाया-०बाबा साहब, वह आदमी आला काला नहीं है। मैं बीच में हूं ही। चिंता मत करो।०
अधॅ बधिर बूढ़ा हुं, हां कर अपने क्यारों की ओर बढ़ गया था, नल चला जाएगा। वकील का स्कूटर फाटक के बाहर बस्ता बांधे खड़ा था। एक गाय मुंह उठाती फाइलों की ओर बढ़ गई थी। उधर दौड़ते वकील ने बूढ़ा की ओर हाथ हिलाया। जवाब में बूढ़ा ने भी हाथ हिला दिया था। वकील गदगद हुए-०बाखड़ भैंस देर से पोसाती है, बूढ़ी अकल विलंब से बावड़ी।०बूढ़ा बीमार हुआ, उस दिन से साग-सब्जी बेचने नहीं गया था। पालक, मेथी, चना का साग बड़ा हो रहा था, क्यारों में। बूढ़ा ने तोड़ चूंट सागपात का मिला, कर लिया था, पोटली भर। बूढ़ा सौ फीट सड़क के जिस नुक्कड़ पर सब्जी लेकर बैठा करता, वह बरकत की ठौर थी, जैसे। यहां सब्जी की पोटली उतारते ही उसके जेहन में पानी भरे बादलों की भांति कुछ घुमड़ता। कभी दो कुओं की सब्जी, भेली होती थी, यहां। बैलगाड़ी सब्जी मंडी नहीं जाती थी। चिल्ल-पों, भीड़-भड़ाका, बैल चमकते चौंकते थे। तांगा ले जाया करते थे।
एक जना बूढ़ा के सामने आ खड़ा हुआ था। बूढ़ा ने पोटली खोलकर साग में हाथ मारा-०आओ बाबू साहब ताजा साग छै, अपना खेत को। चार रुपए पाव देऊंलो।० लंबे-तगड़े बदने पर ढीला-ढंकल सा कुरता-पाजामा पहने पैंतीस साल के उस आदमी की पुतलियों में कुछ और ही दिपदिपा रहा था। हल्की सी खंखारी ली-०बूढ़ा बाबा, अपना प्लॉट का भाव बताओ थै, तो०। बोनी बट्टा हुआ नहीं कि....। बूढ़ा धधका। बूढ़ा चमका। बूढ़ा ने होंठ से जीभ काटी-०साग की बात कर बाबू, पिलाट विलाट ना बेचूं, मैं।०
बूढ़ा एक ग्राहक को साग तौल रहा था। उचंती सा एक दलाल आया। बैठा। उसने आव देखा न ताव, बैग की चेन खींची-सौ-सौ के नोटों की तीन गड्डियां बूढ़ा के साग पर बिछा दी थीं। पूरे तीस हजार थे। उसकी सूझ थी, प्लॉट या मकान बेचने वाले के सामने रकम बिछा दो। नोटों की गरमी से जमे घी की तरह पिघल जाएगा वह। गरूर से कहने लगा-०बूढ़ा बाबा, पाव-पाव कांई बेचो। पिलाट का दाम बोलो। रोकड़ा लो।० बूढ़ा की नस-नस में ज्वाला उतरी थी। रोआं-रोआं उठ खड़ा हुआ था। मूंछों के बाल हुंचकने लगे थे। बूढ़ा को लगा जैसे किसी ने उसके भीतरले (हृदय) को खूनमखून कर दिया है, सरे राह। चीते में भी इतनी चपलता ना हो। कट्टे में पड़ा चाकू निकालकर बूढ़ा झट खड़ा हो गया था। उसने दलाल के सीने पर चाकू रख दिया था-०बोल, थारा कालजा को कांई लाग्यो।०
सिंह शावक सा कुलांचे भरता दलाल का उत्साह, चूहे जैसे भय में परिणत हो गया था। उसकी आंकें बाहर निकल आई थीं। गिरीं, अब गिरीं। चेहरा फक्क पड़ गया था। दलाल अपने पैसे समेट कर भीगी बिल्ली सा चला गया था। झुंझल बूढ़ा की झुररियों में झूलती थी। तमाशबीन दांतों तले अंगुली दबाए ते, बूढ़ा कि शोला। बूढ़ा का मन उचट गया था। हृदय चोट खाई गेंद की नाईं उछल-बैठ रहा था। काला रंग का एक सांड खड़ा हुआ था। बुढ़ऊ पर, जिजीविषा लिए। बूढ़ा उठा और उसके सामने साग की धोती झड़का दी थी।
सड़क के दोनों किनारे मंजिल पर मंजिल बनती जाती थी। दुकानें और शॉपिंग सेंटर खुले थे। बूढ़ा अपना धोती कट्टा लिए उन्हें अपलक निहारता चला जाता था। आह भरता, उसी के खेत में है।
मोड़ था। एक महिला बूढ़ा के सामने घिर गई थी।
नाराजगी भरे अंदाज में वह बूढ़ा से बोली-०बाबा, म्हारा पिसां कांकरा था कांई। ० दूसरां ने प्लॉट बेच दियो।०
बूढ़ा छोह से बिगड़ा-०कै ससुरा ने बेच दियो पिलाट? कै साला ने खरीद लियो, बता तो।०
०मरद मरण नै मर जाएगा, मन की थाह ना देगो।०
वह साड़ी का पल्लू सिर पर लेती, फुच्च फुच्च थूक फुचकती आगे बढ़ गई थी।
बूढ़ा अपने खेत से बाहर निकलताष ०खेत बिकाऊ नहीं है०, अपनी अनगढ़ लिखावट में कागज या गत्ते पर लिख उसे बंद फाटक पर टांक देता। लौटता, कागज या गत्ता नदारद मिलता। हवा ले जाती। गाय मुंह भर जाती। कचरा बीनने वाले झटक ले जाते। बूढ़भस को एक नई सूझी। उसने गेट पर तीन-चार तसला रेत डाल दिया था। बूढ़ा रेत को अपनी हथेली से एकसार करता। अंगुली से गहरी लकीर खींचता और -०खेत बिकाऊ नहीं है।०मांड देता, टेढ़ा-मेढ़ा। बूढ़ा वापस आता। उसका तन-बदन जल उठता। वह इबारत भांति-भांति के खोजों से रौंदी मिलती।
बूढ़ा अपने खेत के सामने ठिठक गया था। कलेजा धक रह गया था। सांसें कपाल जा लगी थीं। फाटक खुला था। पुलिस की गाड़ी बाहर खड़ी थी। बड़े-बड़े खोज अंदर की ओर थे। खेत की नाप-जोख हो रही थी। डी.वाई.एस.पी. खुद फीता पकड़े थे।
खातेदार बूढ़ा हो या बालक, उसमें मालिकाना अहम होता है। बूढ़ा ने बाट-तराजू का कट्टा नीचे पटका। धोती खाट पर फेंकी। बूढ़ा बंदर की फुरती लिए लपका और पुलिस अफसर के हाथ से फीता झटक लिया था-०मरां को माल छै कांई, फीतो डल रहो छै?०
पुलिस अफसर खड़ा रह गया था, सट्ट। तैशभरी आंखें बताईं-०एडवांस नहीं लिया, तुमने।०
०कै ससुरा ने लियो एडवांस? कै साला ने करो कागज पे गूंठो?० बूढ़ा ने उसांस छोड़ी।
उन्होंने स्टांप पेपर की फोटो कॉपी निकाल कर पूछा-०तुम्हारा नाम केरसिंह सैन है?०
०हुं।०
०वल्द भगवानाराम।०
०हुं।०
०उम्र चौहत्तर वषॅ?०
०हुं।०
०साइज दो सौ वगॅ गज?०
०हुं।०
०हुं-हुं-हुं। बाबा साहब, बूढ़ों पर यकीन करना धमॅ मानते हैं। आप हैं कि पांच हजार एडवांस लेकर गिरगिट हो गए।०
०कांई ससुरा ने पाई भी ली, खट्टाराम की सों।० सच्चाई बूढ़े की आंखों में नमी के रूप में उतरी थी।
गेंद पानी में डुबाओ, उछल कर ऊपर आती है। पुलिस अफसर का क्षोभ दबाए नहीं दबता था। उनका मन हुआ था। टोकरे की खपच्चियों जैसी पसलियों के ढांचे इस डोकरे को गाड़ी में पटक कर ले जाए और भांग उगाने का केस बनाकर इसकी बुढ़ौती बिगाड़ दे। चवन्नी की चमक में चाकर का चेहरा या उसके उसके हुक्काम था। बूढ़ा के अफसर बेटे का ख्याल कर उन्होंने अपना फीता समेट लिया था।
बूढ़ा ने अपनी नम आंखें पोंछीं। फाटक को बंद करते हुए अपने बेटे को दाद दी-०मेरो बेटो खट्टाराम बड़ो अफसर छै। फोन माले धरती धूजे। ना तो दो पैरां का जानवर मुनै मोस मीस कदी का खेत डकार जाता। ०
पुलिस अफसर अपनी गाड़ी के पास आकर खड़े हो गए थे। वे वकील को बुलाकर बूढ़ा से रू-ब-रू होना चाहते थे, बयाना के बाद भी मुकर क्यों। दफ्तर से उनका मोबाइल आ गया था। चलो, बाद में बात करते हैं, कसाई का माल पाड़ा खाने से रहा। जग जवर कर रहा है बूढ़ा का सिर घूम रहा था। धोंकनी बढ़ गई ती। मोटियार केरसिंह कभी बीस फीट फौरा कूद जाता था, बूढ़ई डग-डग, झोंपड़ी तक पहुंचा। बल्ली पकड़ ली थी। शरीर में रीढ़ की हड्डी की तरह छान को रोके खड़ी शीशम की यह बल्ली बूढ़ा की हमउम्र थी। किसान अपने खेत खानाबदोश हो जाया करता है। जहां फसल उगाई, झोंपड़ी डाल ली। झोंपड़ी किसानों की निशानी। झोंपड़ी बूढ़ा का आशियाना। बल्ली हमसफर। बल्ली पर रखी छानें, शरीर से पुराने कपड़ों की तरह उतरती रहीं। बल्ली वही रही।
सांस जुड़ी कि बूढ़ा खाट पर बैठ गया था। बिस्तर तले कागज जैसा कुरकुराया। बूढ़ा ने बिस्तर तहा कर देखा। हाथ लिखा दस रुपए का स्टाम्प था। नीचे दो दस्तखत थे। मजमून नोटरी पब्लिक से सत्यापित था। बूढ़ा को डंक सा लगा। कॉलोनी बूढ़ा को जिंदादिल कहती। बूढ़ा खुद को बड़ा हेकड़ मानता था। उसकी डरी-सहमी बूढ़ी आंकें कागज नहीं पढ़ पा रही थीं। बिम्ब बनता कि शब्द फिसल जाते, मानो शब्द नहीं पारा हो, न चुटकी में, न मुट्ठी में।
विपदा की घड़ी, साहस संबल। चस्मा की डंडी पकड़े बूढ़ा कागज पर लिखा पढ़ गया था, शब्द-शब्द। राजफाश। उसका हाथ खाट पर रखी प्लास्टिक की थैली पर गया। कागज पर पांच हजार मंडे थे, वही थे। बूढ़ा को पसीना छूटा।
आक्रोश, भत्सॅना और धिक्कार से बूढ़ा की गदॅन हिलती रही। ०डोकरा हूं न। अकेला हूं, न। दफन कर दो, बिन कफन।० वकील का लंबोतर चेहरा बाघ के मुंह सा भयानक और खाऊं लगा, बूढ़ा को। बीमारी के टेम, वकील ने उसके पेट में घुसकर बातें पूछी थीं। खेत में खड़े पुलिस अफसर ने तस्दीक कर दी थी। बूढ़ा की आंखों मेकं धरती-आसमान घूमने लगे थे। बूढ़ा झटके से उठा। उसने रुपए और कागज धोती-बंध में बांधे। साफा पहना। लाठी ली। लाठी पर बूढ़ा की मुट्ठियां कसती गई थीं।
सांझ उतर रही थी। दीया-बाती का वक्त होने को था। आग का भभूका सा बूढ़ा०खेत ना बेचूं, खेत ना बेचूं० बरराता वकील के घर के सामने जाकर रुका। उसने घंटी के बटन पर अंगुली दबाई, घंटी नहीं, टेंटुआ हो। घंटी कुकड़ूं-कूं, कुकड़ूं-कूं, कुकड़ूं-कूं बोली। झबर बालों वाला एक कुत्ता लपक कर आया। वह बूढ़ा को भूंकता गेट नोंचने लगा था। बूढ़ा ने ठोरा मारा। कुत्ता डरकर दीवार के साथ जा लगा था।
लुंगी बांधे कुरता गदॅ में डालते हुए वकील बाहर निकले। बूढ़ा को देख बाग-बाग हुए। वकील की अकल। अक्खड़ बूढ़ा खुद गेट पर है।
वकील ने एक सुखद आह ली-०वकालत तो यूं ही टुच्च-टुच्च है। धंधा प्लॉटों की दलाली। दो थोक पचास हजार आएंगे।०
गेट खोलते हुए वकील बूढ़ा से मुखातिब हुए-०बाबा साहब, स्टाम्प पर निशान लगाया था, वहां दस्तखत कर दिए न, आपने?०
बूढ़ा ने अडूंस खोली। स्टाम्प की चिंदी-चिंदी कर वकील पर फेंक दी। रुपए की थैली सामने पटकी। उसने गेट पर लाठी ठकठकाई-०वकील छौ ना। केरसिंह पागल कोनी, कालजो बेच दे अपणो।०
बूढ़ा लाठी उठाए कि वकील ने गेट बंद कर लिया था।

तो कहानी तो हुई खत्म। अब आपको भी महसूस हुआ होगा कि मैंने इस कहानी के विषय में ऊपर जो भी कहा है, इस कहानी में छिपे गुणों की तुलना में शतांश भी नहीं है। हां, फोंट की अनुपलब्धता के कारण विराम चिह्न संबंधी अशुद्धियां रह गई हैं, इसके लिए क्षमा चाहता हूं। आपने धैयॅ के साथ यह कहानी पढ़ी, इसके लिए साधुवाद। इसमें कुछ भी अच्छा लगा हो, आप इसके लिए रत्न कुमार सांभरिया जी को बधाई दे सकते हैं।

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