Tuesday, January 22, 2008

साहित्यकारों का मेला गुलाबी नगर में

दो संस्थाओं की ओऱ से जयपुर में इन दिनों साहित्य का महाकुंभ आयोजित किया जा रहा है। 20 जनवरी की शाम उज्जैन (मध्यप्रदेश) के लोकगायक प्रहलाद सिंह तिपनिया और उनके साथियों ने कबीर के दोहों और साखियों के गायन से इस कायॅक्रम का शुभारंभ किया, जबकि 21 जनवरी की सुबह डिग्गी पैलेस होटल में इसकी औपचारिक शुरुआत हुई। यहां होने वाले विभिन्न सत्रों में देशभर से आए साहित्यकार विभिन्न विषयों पर अपना पक्ष रख रहे हैं। तकनीकी समृद्धि के इस युग में प्रोजेक्टर के सहारे प्रजेंटेशन की भी मदद ली जा रही है। ...और यह सब देखने-सुनने के लिए साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों की भी भीड़ जुट रही है। 27 जनवरी तक यह महाकुंभ चलेगा।
जयपुर से प्रकाशित हिंदी दैनिक समाचार पत्र डेली न्यूज के 21 जनवरी के अंक में प्रकाशित आलेख में साहित्यकार प्रेमचंद गांधी ने इस आयोजन को अपने नजरिये से देखा। आप भी देखें उनके विचार जस के तस---

भारत का इंडिया में अनुवाद!

वैश्वीकरण के इस दौर में हम देख रहे हैं कि किस तरह आम आदमी की पहुंच वाली चीजों को बडे़ पूंजीपति और कॉरपोरेट घराने हथिया कर भव्य शॉपिंग मॉल और बाजारों में न केवल ले जाते हैं, बल्कि एक खास तरह से चीजों की ब्रांडिंग कर एक बडे़ समुदाय को उनसे वंचित भी कर देते हैं। मसलन किसी मॉल में एक मजदूर घुसने की हिम्मत भी नहीं कर सकता है। चीजों को सर्वसुलभ बनाने के नाम पर पूंजी का यह शर्मनाक खेल जारी है और हम असहाय हैं। दुरभाग्य से मुनाफाखोरी वाले वैश्वीकरण के इस कुचक्र में अब भारतीय संस्कृति के वे सब अंग-उपांग भी आ गए हैं, जिन्हें अब तक बिक्री योग्य नहीं माना जाता था।
सबसे पहले संगीत इस प्रवृत्ति का शिकार हुआ। प्रतिभा खोज के नाम पर चैनलों की संगीत प्रतियोगिताएं किस प्रकार संगीत का कबाड़ा कर चुकी हैं, किसी से छिपा नहीं है। रीमिक्स के नाम पर हमारे लोक, शास्त्रीय और सुगम संगीत से लेकर भक्ति संगीत तक को पाश्चात्य प्रदूषण में इस कदर डुबो दिया गया है कि असली संगीत पता नहीं कहां लुप्त हो गया है। नृत्यों की भी यही हालत है और रंगमंच की क्रांतिकारी जनोन्मुखी विधा `नुक्कड़ नाटक´ अब कंपनियों के सामान बेचने के काम आ रही है। अब साहित्य की बारी है और यकीन मानिए इसकी शुरुआत हो चुकी है।
इन दिनों राजधानी जयपुर में साहित्य का एक बड़ा भव्य प्रायोजित उत्सव चल रहा है। इस उत्सव में भारत को अनुवाद कर अंतिम तौर पर इंडिया बनाने की कॉरपोरेट, ग्लोबल, सरकारी और गैर सरकारी कोशिशें की जा रही हैं। आजादी के साठ साल में यह हाई फाई जश्न मूलत: वैश्वीकरण के दौर में चल रही अनेक प्रवृत्तियों का प्रतीक हैं और एक नए किस्म के औपनिवेशिक भारत बनाने की कुल जमा में साहित्यिक साजिश है। साजिश इसलिए, क्योंकि इसमें, वैश्वीकरण की प्रक्रिया में भारतीय भाषाएं किस तरह बाजार का हिस्सा बन सकती हैं, इस पर जोर दिया गया है अरथात भूमंडलीकरण में भारतीय भाषाएं किस तरह मुनाफाखोरों का भला कर सकती हैं। पिछले दिनों संयोग से इस लेखक से एक ऐसी कंपनी ने अनुवाद के लिए संपर्क किया, जो गांवों में इंटरनेट के माध्यम से ऑनलाइन व्यापार करना चाहती है। कंपनी का आग्रह था कि अनुवाद ग्रामीण भारत के लोगों के अनुरूप होना चाहिए। ट्रांसलेटिंग भारत इसी तरह भारत को अनुवाद के माध्यम से एक बड़ा बहुभाषी बाजार बनाने की प्रक्रिया का पहला चरण है।
इस कथित साहित्य उत्सव का केन्द्रीय विषय है - भाषा भूमंडलीकरण और पढे़ जाने का अधिकार। भाषा और भूमंडलीकरण का अत्यंत गहरा संबंध है। स्वतंत्रता संघर्ष के दौर में हम जानते हैं कि अंग्रेजों ने हम पर राज करने के लिए भाषा को ही एक माध्यम बनाया था। उन्होंने हमारी प्राचीन और वर्तमान तमाम भाषाओं का गहरा अध्ययन किया था। हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं के अध्ययन के आधार पर ही उन्होंने हमारे ऊपर शासन करने के अनेक तरीके खोजे थे। भूमंडलीकरण के इस दौर में या कहें कि नव औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के इस दौर में भारतीय भाषाओं का विपुल साहित्य अंग्रेजी के माध्यम से दुनिया में जाना चाहिए और इसी तरह अंग्रेजों व अन्य भाषाओं से भारतीय भाषाओं में आना चाहिए। दुरभाग्य से इस उत्सवधर्मी प्रायोजित साहित्यिक उपक्रम में जो प्रकाशक भागीदार हैं, वे मुख्यत: अंग्रेजी या हिन्दी के हैं। इसलिए उनसे यह अपेक्षा तो नहीं की जा सकती कि वे विश्व साहित्य को भारतीय भाषाओं में मसलन राजस्थानी में भी छापने के लिए उत्सुक होंगे। मुनाफाखोर अंग्रेजी प्रकाशक भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में चाहता है कि वह दुनिया का उत्कृष्ट साहित्य अनुवाद के माध्यम से छाप कर और बड़ा बनता जाए। इस अनूदित साहित्य से भारतीय भाषाओं का कोई भला नहीं होने वाला, क्योंकि अनुवाद पर अनुवादक का कॉपीराइट नहीं होता, वह एकमुश्त भुगतान के माध्यम से प्रकाशक खरीद लेता है और पीढ़ियों तक कमाता रहता है। अनुवादक और मूल भाषा बहुत पीछे छूट जाती है।
इस उत्सव के निमंत्रण पत्र के तौर पर महंगे आर्ट पेपर पर बहुरंगी छपाई वाली पचास से ज्यादा पृष्ठों की मोटी बुकलेट में इस बात पर जोर दिया गया है कि भूमंडलीकरण के दौर में भारतीय साहित्य को अनुवाद के माध्यम से प्रतिष्ठित किए जाने की जरूरत है। भारतीय अर्थव्यवस्था के बढ़ते प्रभाव और महत्व को भी इस संदर्भ में रेखांकित किया गया है। इस तरह भारतीय अथॅव्यवस्था, भारतीय साहित्य और भारतीय भाषाएं भूमंडलीकरण की बहुराष्ट्रीय मुनाफाखोर संस्कृति के लिए एक अनिवार्य उपकरण के रूप में इस्तेमाल की जा रही है। इस तरह इस पूरे आयोजन का मंतव्य स्पष्ट हो जाता है।
हम अनुवाद के विरोधी नहीं हैं, लेकिन हम जानते हैं कि भारत एक बहुभाषी संस्कृतियों का देश है। हम चाहते हैं कि उत्तर पूर्व का साहित्य हिन्दी और अंग्रेजी में ही नहीं, राजस्थानी, गुजराती, उडि़या, मराठी यानि तमाम भारतीय भाषाओं में भी आए। इसी तरह भारतीय भाषाओं के बीच अनुवाद का यह काम होना चाहिए, लेकिन पेंग्विन, हार्पर कॉलिन्स जैसे प्रकाशकों की इसमें क्यों रुचि होगी?
रुचि तो दरअसल ऐसे किसी काम में उन कॉरपोरेट किस्म के प्रायोजकों की भी नहीं होगी, जो इस पूरे आयोजन में भागीदार हैं। अब आप ही बताइए कि रीयल एस्टेट, टे्रवल एजेंट, टेलीफोन, माबॅल, सीमेंट और होटल इंडस्ट्री का साहित्य से क्या लेना देना है? ज्यादातर के लिए साहित्य इंटीरियर डिजाइन का एक हिस्सा है। क्योंकि एक अलमारी में किताबें रखी होने से घर, दफ्तर सुंदर लगता है और वहां रहकर काम करने वालों को एक बौद्धिक आभा प्रदान करता है। यह सही है कि इतने बडे़ और भव्य आयोजन के लिए संसाधन जुटाने के लिए बहुत से प्रायोजकों की मदद ली गई है, लेकिन आयोजन के कुप्रबंध का इस बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि इस लेखक के पास दो साल पुराने पते पर एक साथ, एक ही कोरियर कंपनी द्वारा कुल सात निमंत्रण भेजे गए। इसी तरह अन्य लेखक मित्रों के पास तीन से लेकर आठ तक निमंत्रण पहुंचे। यह तो सरासर धन का अपव्यय है और साहित्य के नाम पर निश्चित रूप से कागज की बरबादी है।
दो साल से जयपुर विरासत फाउंडेशन भी इसी प्रकार का एक साहित्य उत्सव आयोजित करता आ रहा है। इस बार वह उत्सव इस आयोजन में अनुवाद की पूंछ बन गया है। कहने का आशय यह कि कुल आठ दिन के आयोजन में तीन दिन भूमंडलीकण में अनुवाद के नाम और पांच दिन विरासत का तामझाम। अब इस तामझाम में भारत कहां है? यह देखने की कोशिश की तो पता चला कि लगभग नब्बे लेखक-पत्रकारों में से साठ तो सिर्फ अंग्रेजी के हैं और बाकी तमाम भारतीय भाषाओं के। आठ दिन के उत्सव में कुल आठ हिन्दी के हैं और तीन राजस्थानी के। यह है भारत का अनुवाद और साहित्य की विरासत।
चूंकि आयोजन राजस्थान की राजधानी में हो रहा है, इसलिए निवेदन करना जरूरी है कि देश के सबसे बडे़ प्रान्त से मात्र पांच लेखकों को चुना गया है। नंद भारद्वाज, चन्द्र प्रकाश देवल, मालचंद तिवाड़ी और गिरिराज किराडू के अलावा इतिहासकार रीमा हूजा हैं। निश्चय ही ये हमारे महत्वपूर्ण लेखक हैं, लेकिन हिन्दी के और भी लेखक इस भीड़ भाड़ में शामिल कर लिए जाते, तो कम से कम हिन्दी का मान तो बढ़ता, लेकिन जब साहित्य उत्सव बन जाता है, तो ऐसी भूलें हर साल ही दोहराई जाती हैं। दुरभाग्य तो यह है कि मरुस्थल की ये आवाजें राजनीति के पिछवाडे़ में डाल दी गई हैं। मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहा था, लेकिन भूमंडलीकरण के दौर में राजनीति और कॉरपोरेट पूंजी आगे चलती है तथा साहित्य संस्कृति को कुछ लोग मिलकर इनके पीछे जोतने में लगे हैं। यह साहित्य का दुरभाग्य है और हम इसके गवाह हैं।

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