Tuesday, January 8, 2008

नये वषॅ के स्वागत में गीत गुनगुनाइए

नवागत नववषॅ 2008 का एक सप्ताह बीत चुका है, नववषॅ की बधाई के एसएमएस और फोन आने का सिलसिला तो थम गया है, पर गाहे-बेगाहे ग्रीटिंग काडॅ और इक्के-दुक्के पत्रों का आना अभी भी जारी है। इस माह आ रही पत्रिकाएं भी नववषॅ के स्वागत में कविता पाठ कर रही हैं, गीत गुनगुना रही हैं। ऐसा लगता है कि हमारे चहुंओर विराज रही प्रकृति भी नववषॅ के इस उत्सव में हमारे साथ है। तो आइए, हम भी नववषॅ के स्वागत में लिखा गया दिनेश शुक्ल का यह गीत गुनगुनाएं -

स्वागत में नववषॅ के
मेहंदी रची हथेलियां, लिए रंगोली थाल,
नये वषॅ की सुबह यह, दीप रही है बाल.

केले के पत्ते हरे, चावल, शहद, गुलाब,
स्वागत में नववषॅ के हवा लिखे शुभ-लाभ.

गाती गीत सुहागनें, खनके बाजू-बंद,
घर-आंगन में गूंजते, नये वषॅ के छंद.

मौसम चितवे धूप को, देखे रूप, अनूप,
रह-रह कर हंसती सुघड़, नये वषॅ की धूप.

झिलमिल-झिलमिल रोशनी, मोती वाली सीप,
तुलसी के बिरवे तले, जले वषॅ के दीप.

बैठ नदी के घाट पर, धूप धो रही पांव,
भौंचक होकर देखती, नये वषॅ की छांव.

नये वषॅ, बोली हवा, झुक, इमली के कान,
पगडंडी पर कर गया, जादू रात सिवान.

महानगर, कस्बे, शहर, जंगल, गांव, सिवान,
सबके होंठों पर रचे, नया वषॅ मुस्कान.

कुछ कोशिश, कुछ हौंसले, कुछ उम्मीदें संग,
नये वषॅ के द्वार पर, बिखरे कितने रंग.

इच्छाएं, शुभ-लाभ यह, सुख-दुख, चिंता-हषॅ,
सुख सपनों के जोड़ता, गणित खड़ा नव वषॅ।

( साभारः नवनीत, जनवरी 2008)

1 comment:

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर !
घुघूती बासूती